SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन १ उद्देशक १० ९१ .0000000000000000000000000000000000000000000000000000000. ही प्रकरण में वनस्पति एवं मांस का संबंध घटित नहीं हो सकता। अतः स्पष्ट है कि यहाँ अस्थि एवं मांस शब्द का प्रयोग गुठली एवं गूदा अर्थ में किया गया है। - पूज्य श्री आत्माराम जी म. सा. के द्वारा अनुवाद किये हुए आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पृष्ठ नं. ९२० से ९३३ तक में इस विषय को बहुत स्पष्ट किया है और अनेक वैद्यक ग्रन्थों में आए हुए वनस्पति वाचक शब्द दिये हैं जो ऊपर से तो (शब्दार्थ रूप से) माँस वाची दिखते हैं परन्तु वे सब शब्द वनस्पति वाचक हैं। विशेष जानने के लिये जिज्ञासुओं को वह स्थल देखना चाहिए। इस विषय में प्रसिद्ध टब्बाकार उपाध्याय पण्डित रत्न श्री पार्श्व चन्द्र जी सूरि ने भी इस पाठ में आए हुए माँस और मत्स्य शब्द का अर्थ वनस्पति वाचक ही किया है जो सर्वथा उचित और आगमानुकूल हैं क्योंकि जैन साधु-साध्वी माँस और मदिरा के सर्वथा त्यागी होते हैं वे छह काय जीवों के रक्षक होते हैं। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे सिया णं परो बहुअद्विएणं मंसेण वा बहुकंटएणं मच्छेण वा उवणिमंतिजा-आउसंतो समणा! अभिकंखसि बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहित्तए? एयप्पगारं णिग्घोसं सोच्चा णिसम्म से पुव्वामेव आलोएजा आउसो त्ति वा भइणित्ति वा णो खलु मे कप्पड़ से बहु अष्टियं मंसं वा बहुकंटगं मच्छगं पडिगाहित्तए। अभिकंखसि मे दाउं जावइयं तावइयं पोग्गलं दलयाहि, मा य अट्ठियाइं से सेवं वयंतस्स परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहयंसि बहुअट्ठियं मंसं परिभाइत्ता णिहट्ट दलइजा, तहप्पगारं पडिग्गहयं परहत्थंसि वा पर पायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते जाव णो पडिगाहिज्जा॥ कठिन शब्दार्थ - उवणिमंतिजा - निमंत्रित करे, परहत्थंसि - गृहस्थ के हाथ में, परपायंसि - गृहस्थ के पात्र में। . भावार्थ - कदाचित् साधु अथवा साध्वी को गृहस्थ निमंत्रित करें कि हे आयुष्मन् श्रमण! क्या आप यह बहुत गुठली वाला गूदेदार फल या बहुकंटक मत्स्य वनस्पति लेना चाहते हैं? तो ऐसे शब्दों को सुनकर और उन पर विचार कर कहे कि - हे आयुष्मन् ! या भगिनी! मुझे बहुत गुठलियों वाला गूदेदार फल और बहुकंटक वनस्पति लेना नहीं कल्पता है। यदि, तुम मुझे देना चाहते हो तो इसमें जितना गूदा है (गुठली रहित खाद्य पदार्थ है) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy