________________
७४
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 验部參參參參部密密密密密密率密密密密海參參參參參參师御率密密密密密密密密密事部部整形
कठिन शब्दार्थ - आयबले - आत्मबल (शरीर बल) के लिए, णाइबले - ज्ञातिबल के लिए, सयणबले - स्वजन बल के लिए, मित्तबले - मित्र बल के लिए, पिच्चबलेप्रेत्य बल के लिए, देवबले - देव बल के लिए, रायबले - राज बल के लिए, अतिहिबलेअतिथि बल के लिए, किविणबले - कृपण बल के लिए, समणबले - श्रमण बल के लिए, कज्जेहिं - कार्यों से, दंडसमायाणं - दण्ड देता है, प्राणियों की घात करता है, भया - भय से, पावमुक्खो - पाप से मुक्ति, मण्णमाणे- मानता हुआ, आसंसाए-आशंसा से-आशा से।
भावार्थ - वह आत्मबल (शरीर बल) के लिए - बलवान् बनने के लिए, ज्ञाति बल वृद्धि के लिए, स्वजन बल के लिए, मित्रबल के लिए, प्रेत्यबल-परभव (परलोक) में बलवान् होने के लिए, देव बल के लिए, राज बल के लिए, चोरबल के लिए, अतिथि बल के लिए, कृपण बल के लिए, श्रमण बल के लिए, इस प्रकार नाना प्रकार के कार्यों से प्राणियों की हिंसा करता है। यदि मैं इन प्राणियों की घात नहीं करूंगा तो मेरे मनोरथ पूर्ण नहीं होंगे, ऐसा सोच कर अथवा इस भय से हिंसा आदि करता है। कोई पाप से मुक्ति पाने की भावना से यज्ञ बलि आदि द्वारा जीव हिंसा करते हैं। कोई आशंसा से यानी भावी शुभफल की आशा से जीव घात करते हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र हिंसा के विविध प्रयोजनों का वर्णन किया गया है। अर्थ लोलुप मनुष्य इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए जीव हिंसा आदि अनेकविध पापाचरण करता है।
हिंसा-त्याग . .
(८२) तं परिण्णाय मेहावी, णेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभिजा, णेवण्णं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभाविज्जा, एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंतंवि अण्णं ण समणुजाणिजा।
भावार्थ - यह जानकर मेधावी पुरुष उपरोक्त प्रयोजनों के लिए स्वयं प्राणियों की हिंसा न करे, न इन कार्यों के लिए दूसरों से भी हिंसा करावें तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन में नहीं करे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org