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________________ दूसरा अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - हिंसा के विविध प्रयोजन ७३ 88888888@@@@@@@888888888888888888888888888 जाते हैं और जो लोभ सहित दीक्षा लेते हैं वे भी आगे चल कर अलोभ से लोभ को जीत कर कर्मावरण से मुक्त हो जाते हैं। ___इस संसार में कितने ही प्राणी ऐसे हैं जो साधु के वेश को धारण करके भी इस लोक या परलोक के सुख के लोभ में पड़ जाते हैं। वे अपने को साधु कहने की धृष्टता करते हैं किंतु वास्तव में वे साधु नहीं हैं। जो लोभ को जीत कर अकर्मा बनने की चेष्टा करते हैं वे ही सच्चे साधु एवं अनगार हैं। . . .. अर्थलोभी की वृत्ति - अहो य राओ प्ररितप्पमाणे कालाकाल-समुट्ठाई, संजोगट्ठी, अट्ठालोभी, . आलुपे, सहसाकारे, विणिविटुंचित्ते एत्थ, सत्थे पुणो-पुणो॥८०॥ - भावार्थ - वह विषयों में आसक्त पुरुष रात दिन परितप्त - चिंता एवं तृष्णा से आकुलव्याकुल रहता है। काल या अकाल में धन आदि के लिये सतत प्रयत्नशील रहता है। वह संयोग का अर्थी होकर धन का लोभी बन कर चोर या डाकू बन जाता है। सहसाकारी - बिना विचारे कार्य करने वाला हो जाता है और विविध प्रकार की आशाओं-इच्छाओं में उसका चित्त फंसा रहता है तथा अपनी इच्छा पूर्ति के लिये वह बार-बार शस्त्र प्रयोग करता है। पृथ्वीकाय आदि छह काय जीवों की हिंसा करता है। . . हिंसा के विविध प्रयोजन (८१) से आयबले, से णाइबले, से सयणबले, से मित्तबले, से पिच्चबले, से देवबले, से रायबले, से चोरबले, से अतिहिबले, से किविणबले, से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कजेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कज्जइ। पावमुक्खुत्ति मण्णमाणे अदुवा आसंसाए। * 'सयणबले' पाठ किन्हीं प्रतियों में मिलता हैं। अतः यहाँ पर यह मूल पाठ में रखा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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