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________________ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 88888888888888888888888888888888888888 - (७३) । . जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया णियगा तं पुव्विं परिहरंति, सो वा ते णियए पच्छा परिहरिजा। णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा। कठिन शब्दार्थ - परिहरंति - छोड़ देते हैं, परिहरिज्जा - छोड़ देता है। भावार्थ - जिन पुत्र आदि आत्मीयजनों के साथ वह निवास करता है वे आत्मीयजन किसी समय पहले ही उसे छोड़ देते हैं अथवा वह पुरुष बाद में उन आत्मीयजनों को छोड़ देता है अतः शास्त्रकार कहते हैं कि हे पुरुष! न तो वे तेरी त्राण और शरण में समर्थ है और न ही तू उनकी रक्षा करने और शरण देने के लिये समर्थ हो। विवेचन - संसारी जीव नाना कष्ट उठा कर धन संचय करते हैं वे समझते हैं कि यह संग्रह किया हुआ द्रव्य भविष्य में हमारे तथा हमारे संबंधियों के काम में आवेगा तथा इस धन . को यथेच्छ उपभोग करेंगे और इस धन से हम अपनी रक्षा कर सकेंगे, ऐसा सोच कर नाना ... प्रकार के कष्ट सहन करके धन का संग्रह करते हैं। वे न तो स्वयं भरपेट खाते हैं और न अपने परिवार वालों को ही खाने देते हैं परंतु इस तरह कष्टपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता। बहुत बार यह भी देखा जाता है कि भोगने के समय में उस पुरुष को रोग आकर घेर लेते हैं और वह उस संचित धन का भोग नहीं कर सकता। दूसरे लोग ही उस धन का उपभोग करते हैं। वह तो केवल परिश्रम और पाप का भागी होता है इसलिए बुद्धिमान् पुरुषों को धन की तृष्णा से अपने अमूल्य समय को नष्ट करना उचित नहीं है। . (७४) जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए, खणं जाणाहि पंडिए। कठिन शब्दार्थ - जाणित्तु - जानकर, दुक्खं - दुःखको, सायं-साता-सुख को, अणभिक्कंतंबीती नहीं है, खणं - क्षण (समय), अवसर को, जाणाहि - जान, पंडिए - पंडित। - भावार्थ - प्रत्येक प्राणी के सुख और दुःख को अलग-अलग जान कर रोगादि कष्टों को. समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये। जो अवस्था अभी बीती नहीं है उसे देख कर हे पण्डित! तू क्षण (समय) को, अवसर को जान/समझ। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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