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________________ दूसरा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - प्रमाद-परिहार ६७ .(७१) - जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया णियगा तं पुव्विं पोसेंति सो वा ते णियगे पच्छा पोसिज्जा। णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा। कठिन शब्दार्थ - पुब्बिं - पहले, पच्छा - बाद में, पोसेंति - पोषण करते हैं, पोसिज्जा - पोषण करता है। भावार्थ - जिन पुत्र आदि. आत्मीयजनों के साथ वह निवास करता है वे पहले कभी उसका पोषण करते हैं तत्पश्चात् वह धन आदि के द्वारा उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना होने पर भी वे स्वजन तुम्हारे त्राण-रक्षा करने में और शरण देने में समर्थ नहीं है तथा तुम भी उनको त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।.. विवेचन - अज्ञानी जीव पुत्र कलत्रादि एवं कुटुम्ब परिवार के पालन पोषणार्थ धनोपार्जन करने के लिए नानाविध पापाचरण करता है किंतु वे उसके लिये त्राण-शरण रूप नहीं हो सकते। (७२) उवाइयसेसेण वा संणिहिसंणिचओ किजइ, इहमेगेंसि असंजयाणं भोयणाए। तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पजंति। कंठिन शब्दार्थ - उवाइयसेसेण - उपभोग में आने के बाद बचे हुए, संणिहिसंणिचओसंनिधि और संचय, रोगसमुप्पाया - रोग समुत्पादाः-साध्य और असाध्य रोग, समुप्पज्जंति - उत्पन्न हो जाते हैं। भावार्थ - उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन तथा भोगोपभोग की जो सामग्री संचित करके रखी गयी है उसको असंयमी प्राणी अपने भोग के लिए सुरक्षित रखता है किंतु कभी ऐसा होता है कि भोग के समय उसके शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं। विवेचन - 'संनिधि-संचय' शब्दों का अर्थ - विनाशी द्रव्यों (दूध, दही आदि) की संनिधि होती है। अविनाशी द्रव्यों - लम्बे काल तक टिकने वाले घृत, शक्कर, गुड़ आदि द्रव्यों का संचय होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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