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आचारांग सत्र (प्रथम श्रतस्कन्ध) 部部本部參事部部參事部部本部參參參參參參密密密部部密密部部參事部參事部部密密密密部密密部
कठिन शब्दार्थ - इच्चेवं - इस प्रकार, समुट्ठिए - सम्यक् प्रकार से उद्यत होकर, अहोविहाराए - अहो विहार-संयम के लिए, मुहुत्तमवि - मुहूर्त-क्षण भर भी, णो पमायए - प्रमाद न करे, जोव्वणं - यौवन। ____ भावार्थ - इस प्रकार चिंतन कर मनुष्य संयम साधना के लिए उद्यत हो जाये। धीर पुरुष आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल में उत्पत्ति आदि प्राप्त सुअवसर को देख कर धर्म कार्य में मुहूर्त भर भी प्रमाद न करे अर्थात् क्षण भर भी व्यर्थ नहीं जाने दे क्योंकि आयु शीघ्रता से बीत रही है और यौवन चला जा रहा है। . ___ विवेचन - आयुष्य ओस बिंदु के समान चंचल है और यौवन तो पर्बत से उतरने वाली नदी के वेग के समान अति शीघ्रता पूर्वक व्यतीत होने वाला है अतः आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल आदि को प्राप्त करके बुद्धिमान् पुरुष को एक क्षण भर भी धर्मकार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिये। ___सामान्य मनुष्य की दृष्टि में संयम-आश्चर्यपूर्ण कठिन जीवन यात्रा होने से प्रस्तुत सूत्र में संयम के लिये 'अहोविहार' शब्द का प्रयोग किया गया है।
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जीविए इह जे पमत्ता। से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुपित्ता, विलुपित्ता, उद्दवित्ता, उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे।
कठिन शब्दार्थ - जीविए - जीवन में, हता - प्राणियों का हनन करता है, छत्ता - अंगों का छेदन करता है, भेत्ता - भेदन करता है, लुपित्ता - ग्रंथि (गांठ) काटता है, विखंपित्ता - पूरे परिवार या ग्राम आदि की हत्या करता है, उद्दवित्ता - विष और शस्त्र आदि से प्राण घात करता है, उत्तासइत्ता - भय और त्रास देता है, अकडं - अकृत - जो आज दिन तक किसी ने नहीं किया वह कार्य, करिस्सामित्ति - मैं करूँगा, मण्णमाणे - मानता हुआ।
भावार्थ - जो इस जीवन में प्रमत्त-प्रमाद युक्त है वह अन्य जीवों को मारता है, अंगों का. छेदन भेदन करता है, लूटता है, ग्रामादि का घात करता है, प्राणियों का नाश करता है उन्हें त्रास देता है और इस प्रकार मानता है कि जो कार्य आज तक किसी ने नहीं किया, वह मैं करूंगा।
विवेचन - विषयभोगों में आसक्त प्रमत्त जीव त्रस और स्थावर सभी प्राणियों का नाना प्रकार से घात करता है।
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