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________________ ६. दूसरा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - प्रमाद-परिहार 888888888888888888888888888888888888888888888888888 विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधक को सावधान करते हुए कहा गया है कि - संसार में जितने भी प्राणी हैं सभी अपने किये हुए कर्म के फलस्वरूप सुख और दुःख को अकेले ही भोगते हैं। कोई किसी के सुख-दुःख का भागी नहीं होता तथा कर्म फल अवश्य ही भोगना पड़ता है, बिना भोगे उससे छूटकारा नहीं होता। अतः साधक पुरुष को समभाव पूर्वक कष्टों को सहन कर लेना चाहिए। .. ___आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल में जन्म, पांचों इन्द्रियों की पूर्णता और नीरोग शरीर की प्राप्ति होना धर्म सेवन का उत्तम अवसर है। इसे पाकर जो व्यर्थ नहीं गंवाता किंतु धर्माचरण करता है, वही पंडित है। अतः साधक को चाहिए कि वह प्राप्त क्षणों को प्रमाद में नष्ट न करे। (७५) जाव सोयपण्णाणा अपरिहीणा, णेत्तपण्णाणा अपरिहीणा, घाणपण्णाणा अपरिहीणा, जीहपण्णाणा अपरिहीणा फरिसपण्णाणा अपरिहीणा, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहायमाणेहिं आयटुं सम्मं समणुवासिजासि त्ति बेमि। .. ॥बीअं अज्झयणं पढमोहेसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - अपरिहीणा - अपरिहीन-हीन नहीं हुई, परिणाणेहिं - प्रज्ञानैःप्रज्ञानों के - ज्ञान शक्तियों के, आयटुं - आत्मार्थ, सम्मं - सम्यक्तया, समणुवासिज्जासिउद्योग (प्रयत्न) करे। . भावार्थ - जब तक श्रोत्र परिज्ञान यानी कानों की शब्द सुनने की शक्ति क्षीण नहीं हुई है, नेत्रों की रूप देखने की शक्ति क्षीण नहीं हुई है, नाक की गंध ग्रहण करने की शक्ति क्षीण नहीं हुई है, जिह्वा की रस ग्रहण करने की शक्ति क्षीण नहीं हुई है, स्पर्शनेन्द्रिय की शक्ति क्षीण नहीं हुई है इसी प्रकार जब तक नाना प्रकार की ज्ञान शक्तियाँ क्षीण नहीं हुई है तब तक अपने आत्मकल्याण के लिये सम्यक् प्रकार से प्रयत्न करना चाहिये। विवेचन - शरीर एवं इन्द्रियों की स्वस्थता के रहते हुए साधक को आत्म-साधना में संलग्न हो जाना चाहिये, यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है। ॥ इति दूसरे अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त॥ : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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