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. [8] RRRRRRRRRRRRRRR############################ है। इसमें बतलाया गया है ज्ञपरिज्ञा अर्थात् अशुभ योगादि से होने वाले कर्म बन्ध के कारणों को जानो एवं प्रत्याख्यान प्ररिज्ञा से उनका त्याग करो। प्रथम अध्ययन में सात उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक - जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म का सघन उदय होता है वह यह नहीं जान
पाता है कि मैं पूर्वभव में किस गति में था और यहाँ कहां से आया हूँ? पर जब ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जाति स्मरण ज्ञान, अवधिज्ञान अथवा मनःपर्यय ज्ञान हो जाता है अथवा गुरु आदि के उपदेश से जब . जीव यह जान लेता है कि मैं पूर्वभव में अमुक था और यहाँ से मृत्यु को प्राप्त कर अमुक स्थान पर उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार जो व्यक्ति आत्मा के इस स्वरूप को जान लेता है वह “आत्मवादी'' कहलाता है। जो आत्मा के स्वरूप को जान लेता है, वह लोक के स्वरूप को जान लेता, जो लोक के स्वरूप को जानता है, वह कर्म के स्वरूप को जान लेता है। क्योंकि जीव के लोक में परिभ्रमण का कारण कर्म ही है। जो कर्मों का . स्वरूप जानता है। वह कर्म बन्ध के कारण भूत क्रिया को जान लेता है। इसलिए इस अध्ययन में आत्मा के यथार्थ स्वरूप, को जानने वाले को
आत्मबादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी कहा है। दूसरा उद्देशक - - इस उद्देशक में पृथ्वीकायिक जीवों का स्वरूप बताकर उनकी हिंसा नहीं
करने का उपदेश फरमाया। साथ ही यह बतलाया गया है कि जो साधु अथवा साध्वी पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते, करवाते अथवा करने वाले का अनुमोदन भी करते हैं वे वास्तव में जैन साधु साध्वी नहीं किन्तु गृहस्थ के समान सावध क्रिया करने वाले हैं। पृथ्वीकाय का आरंभ जीव क्यों करता है? इसके लिए बतलाया गया है कि जीव अपने इस जीवन को नीरोग और चिरंजीवी बनाने के लिए, मान, पूजा, प्रतिष्ठा प्रशंसा के लिए, जन्म मरण से छूटने के लिए अथवा दुःखों का नाश करने के लिए वह इसका आरम्भ करता है। प्रभु फरमाते हैं यह पृथ्वीकाय का आरम्भ, आरम्भ करने वाले जीव के लिए बोधि (सम्यक्त्व) नाश का कारण, मृत्यु का कारण, नरक का कारण है, क्योंकि पृथ्वीकाय
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