________________
[9]
के आरम्भ में मात्र पृथ्वीकाय के जीवों की ही हिंसा नहीं होती प्रत्युत उसके नेश्राय में रहे हुए अनेक वनस्पतिकाय, अप्काय यावत् त्रसकाय तक की हिंसा होती है। अतएव प्रभु ने पृथ्वीकाय की हिंसा करने का पूर्ण निषेध किया है। - शिष्य प्रश्न करता है कि पृथ्वीकायिक जीव देखता नहीं, सुंघता नहीं, बोलता नहीं, चलता-फिरता नहीं, फिर उसे वेदना किस प्रकार होती है? . उत्तर में प्रभु फरमाते हैं - पूर्व अशुभ कर्म के उदय के कारण कोई पुरुष मृगापुत्र के समान जन्मान्ध, बधिर-बहरा, मूक-गूंगा, कोढ़ी, पंगु और हाथ पैरों से रहित हो और उस व्यक्ति को अन्य कोई व्यक्ति उसके अवयवादि आदि का छेदन करे, मारे पीटे तो यद्यपि वह व्यक्ति बोलता नहीं, चलता नहीं, रोता नहीं परन्तु दुःख का अनुभव करता है, इसी तरह पृथ्वीकायिक जीव को खोदने, छेदन, भेदन करने पर उसे भयंकर दुःख का अनुभव होता है। इसलिए प्रभु ने इसके आरंभ का निषेध किया है। इस उद्देशक में प्रभु ने अप्काय - पानी के जीवों का स्वरूप बताकर उसकी हिंसा न करने के उपदेश फरमाया है। जो लोग पानी में जीवों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते प्रभु ने उन्हें 'मृषावादी' कहा है। इतना ही नहीं जो पुरुष अप्काय जीवों के अस्तित्व का अपलाप करता है उसे स्वयं की आत्मा का 'अपलापक' कहा है। इससे साथ ही अप्काय का आरम्भ जीव क्यों करता है? इसका फल क्या होता है? इत्यादि सारा वर्णन पृथ्वीकाय के समान जानना चाहिये। . . . इस उद्देशक में अग्निकाय का वर्णन है। संसार में जितने भी एकेन्द्रिय जीव हैं उन सब में वनस्पतिकाय की अवगाहना सबसे अधिक यानी १००० योजन झाझेरी है। इसलिए उसे 'दीर्घलोक' कहा है। चूंकि अग्निकाय उस दीर्घकाय को जला डालवी-इसलिए अग्निकाय को “दीर्घलोक शस्त्र" कहा है। प्रभु ने इसे समस्त प्राणियों का घातक शस्त्र कहा है। प्रभु ने अग्निकाय के आरंभ करने वाले को समस्त प्राणियों को दण्ड देने वाला
तीसरा उद्देशक -
चौथा उद्देशक -
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org