________________
४४
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE खलु णरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ।
भावार्थ - वह साधक हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को समझता हुआ संयम साधना में तत्पर हो जाता है। कितनेक मनुष्यों को तीर्थंकर भगवान् के समीप अथवा अनगार मुनियों के पास धर्म सुन कर यह ज्ञात हो जाता है कि “यह वनस्पतिकाय का आरम्भ (जीवहिंसा) ग्रंथग्रंथि है, यह मोह है, यह मृत्यु है और यही नरक है।" फिर भी विषय भोगों में आसक्त जीव अपने वंदन, पूजन और सम्मान आदि के लिये नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय के आरम्भ में संलग्न होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है तथा वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के छोटे बड़े (त्रस-स्थावर) जीवों की भी हिंसा करता है। विवेचन - वनस्पतिकायिक जीवों का आरम्भ ग्रंथ, मोह, मृत्यु और नरक का कारण है। मनुष्य और वनस्पति में समानता
। (४४) । ___ से बेमि-इमंपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं, इमंपि वुद्धिधम्मयं एयंपि
वुद्धिधम्मयं, इमंपि चित्तमंतयं एयंपि चित्तमंतयं, इमंपि छिण्णं मिलाइ, एयंपि छिण्णं मिलाइ, इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं, इमंपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं, इमंपि असासयं, एयंपि असासयं, इमंपि चयोवचइयं, एयंपि चयोवचइयं, इमंपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं। .. कठिन शब्दार्थ - जाइधम्मयं - जातिधर्म-उत्पत्ति धर्म वाला, वुद्धिधम्मयं - वृद्धि धर्म वाला, चित्तमंतयं - चेतनता युक्त, चेतन, छिण्णं - छिन्न-काट देने पर, मिलाइ - म्लान हो जाता है, सूख जाता है, आहारगं - आहार करता है, अणिच्चयं - अनित्य, असासयं - अशाश्वत, चयोवचइयं - अपचय और उपचय को प्राप्त, विपरिणामधम्मयं - विपरिणाम धर्म वाला - अनेक प्रकार के परिवर्तनों से युक्त, परिणामी। - भावार्थ - मैं कहता हूं कि जैसे - यह मनुष्य का शरीर उत्पत्ति (जन्म) धर्म वाला है वैसे ही यह वनस्पतिकाय भी उत्पत्ति धर्म वाला है। जैसे यह मनुष्य का शरीर वृद्धिधर्म वाला है
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org