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________________ प्रथम अध्ययन - पांचवां उद्देशक - वनस्पतिकायिक हिंसा के कारण भी भी भी भी भी भी भी भी भी ६ ६ ६ ६ ६ ६ ४ ४ ४ ४ ४ ४ विवेचन - जो वनस्पतिकाय का स्वयं आरम्भ - समारम्भ नहीं करते हैं, दूसरों से नहीं M करवाते हैं और आरम्भ समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते हैं वे ही सच्चे अनगार हैं। ऐसे आत्मसाधकों को वनस्पतिकाय का आरम्भ करने वाले वेषधारी साधकों से पृथक् समझने का सूत्रकार का निर्देश है। जो वेषधारी साधु अपने आप को अनंगार कहते हुए भी गृहस्थ के समान वनस्पतिकाय का आरम्भ समारंभ करते हैं, वे वास्तव में अनगार नहीं हैं। वनस्पतिकायिक हिंसा के कारण (४२) तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण - माणण-पूयणाए, जाइमरण मोयणाएं दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वणस्सइसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा वणस्सइत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा वणस्सइसत्थं . समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहिए । ४३ भ भावार्थ - इस वनस्पतिकाय के आरम्भ के विषय में निश्चय ही भगवान् महावीर स्वामी ने परिज्ञा (विवेक) फरमाई है। इस जीवन के लिये अर्थात् इस जीवन को नीरोग और चिरंजीवी बनाने के लिये, मान के लिये, पूजा प्रतिष्ठा के लिये, जन्म मरण से छूटने के लिये और दुःखों का नाश करने के लिये वह स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। यह हिंसा उसके अहित के लिये होती है, उसकी अबोधि के लिये होती है । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि अज्ञानी जीवं किन किन कारणों से वनस्पतिकाय का आरम्भ समारम्भ करते हैं। यह आरम्भ उस जीव के लिये अहितकारी और दुःखदायक होता है तथा अबोधि के लिये होता है। अतः विवेकी पुरुष को वनस्पतिकाय के आरम्भ से बचना चाहिये । Jain Education International - (४३). से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवइ एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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