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________________ 0 . आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 000000000000000000000000000000000000000000 बार-बार शब्दादि में आसक्त हो कर उनका उपभोग करने वाला पुरुष वंक समाचारकुटिल आचरण करने वाला होता है और इनकी प्राप्ति के लिए वह असंयममय जीवन हिंसा, झूठ आदि पापों का सेवन करता है। .. जो पुरुष प्रमत्त अर्थात् शब्दादि में आसक्त है वह गृहस्थवास में निवास करता है। विवेचन - शब्दादि काम गुण संसार परिभ्रमण के कारण हैं। वे ऊपर, नीचे, तिरछे सर्वत्र व्याप्त है, कोई स्थान इन से खाली नहीं है। किन्तु आगमकार फरमाते हैं कि रूप एवं शब्द. आदि का देखना सुनना स्वयं में कोई दोष नहीं है किन्तु उनमें आसक्ति अर्थात् राग या द्वेष होने से आत्मा उनमें मूर्च्छित हो जाता है। यह आसक्ति ही संसार है। इसलिए विवेकी पुरुषों को उस आसक्ति का त्याग कर देना चाहिये। प्रस्तुत सूत्र में लोक शब्द से रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द लिये गये हैं। जो पुरुष इनमें आसक्त होकर राग द्वेष के वशीभूत होता है वह अगुप्त है और वह जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा में नहीं है। दीक्षित होकर भी जो मुनि विषयासक्त बन जाता है और बार-बार विषयों का सेवन करता है। उसका यह आचरण वक्र-समाचार है, कपटाचरण है क्योंकि वेष से तो वह त्यागी दिखता है किन्तु वास्तव में वह प्रमादी है, गृहवासी है और जिन भगवान् की आज्ञा से बाहर है। । वनस्पतिकायिक जीव हिंसा (४१) लजमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ। भावार्थ - आत्मसाधक वनस्पतिकाय. का आरम्भ करने में लज्जा का अनुभव करते हैं, तू उन्हें पृथक् देख! अर्थात् वनस्पतिकाय का आरंम्भ करने वाले साधुओं से उन्हें भिन्न समझ। ____ कुछ साधु वेषधारी "हम अनगार-गृहत्यागी हैं" ऐसा कथन करते हुए भी नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय संबंधी हिंसा में लग कर वनस्पतिकायिक जीवों का आरम्भ समारम्भ करते हैं तथा वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार की जीवों . की भी हिंसा करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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