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- प्रथम अध्ययन - पांचवां उद्देशक - विषयासक्ति और अनासक्ति
४१ 0000000000RRRRRRRRRRRRRRRRRRB0000000 निरन्तर चारों गतियों में भ्रमण करते रहते हैं इसलिये यहाँ संसार के लिए आवर्त शब्द का प्रयोग किया गया है। . शब्दादि विषयों में जीवों की जो आसक्ति है वही संसार परिभ्रमण का कारण है। क्योंकि इनसे कर्म का बन्ध होता है और कर्म बन्ध के कारण आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है। इस तरह ये विषय अर्थात् गुण संसार का कारण है और शब्दादि गुणों से कर्म बन्धते हैं। कर्म से आत्मा में गुणों की परिणति होती है इस दृष्टि से गुण को संसार कहा गया है और दोनों जगह कारण में कार्य का आरोप होने से गुणों को संसार एवं संसार को गुण कहा गया है।
विषयासंक्ति और अनासक्ति ..........
(४०) उर्ल्ड-अहं-तिरियं-पाईणं पासमाणे रूवाई पासइ, सुणमाणे सद्दाइं सुणेइ, उर्ल्ड-अहं-तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छइ, सद्देसु यावि एस लोए वियाहिए। : एत्थ अगुत्ते अणाणाए पुणो पुणो गुणासाए वंकसमायारे पमत्तेऽगारमावसे।
कठिन शब्दार्थ - उद्धं - ऊपर, अहं - नीचे, तिरियं - तिरछे, पाईणं - पूर्व आदि दिशाओं में, पासमाणे - देखता हुआ, रूवाई - रूपों को, पासइ - देखता है, सुणमाणे - सुनता हुआ, सद्दाई - शब्दों को, सुणेइ - सुनता है, मुच्छमाणे - राग करता हुआ, मुच्छइमूर्च्छित होता है, अगुत्ते - अगुप्त, अणाणाए - अनाज्ञायाम् - आज्ञा में नहीं, पुणो पुणो - बार-बार, गुणासाए - गुणास्वादः - गुणों - विषयों का आस्वाद, वंकस्मायारे - वक्रसमाचारकुटिल आचरण करने वाला - असंयममय जीवन वाला, अगारं - गृहस्थ वास में, आवसे - निवास करता है। . .
___ भावार्थ - ऊपर, नीचे, तिरछे, पूर्व आदि दिशाओं में देखता हुआ जीव रूपों को देखता है और सुनता हुआ शब्दों को सुनता है। ऊपर, नीचे, तिरछे पूर्व आदि दिशाओं में देखे जाने वाले रूपों में राग करता हुआ प्राणी उनमें मूर्छित होता है और इसी तरह शब्दों आदि में भी राग करता हुआ जीव बन्ध को प्राप्त होता है। __यह लोक अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द विषय कहे गये हैं। जो पुरुष इन विषयों में अगुप्त है वह भगवान् की आज्ञा में नहीं है।
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