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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 88888888888888888888 RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR
कठिन शब्दार्थ - समुट्ठाए - समुत्थाय-संयम अंगीकार करके, मत्ता - जीवादि पदार्थों के स्वरूप को जान कर, मइमं - मतिमान्, अभयं - अभय-सभी भयों से रहित-संयम को, विइत्ता - जान कर, करए - करता है, एस - एष-वही, उवरए - उपरत-निवृत्त-त्यागी।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे उत्तम बुद्धि वाले शिष्य! जीवादि पदार्थों के स्वरूप को जान कर प्रभु आज्ञा के अनुसार संयम अंगीकार करके एवं समस्त भयों से रहित संयम को जानकर यह संकल्प करे कि मैं वनस्पतिकाय का आरम्भ नहीं करूँगा। जो पुरुष वनस्पतिकाय का आरम्भ नहीं करता है वही पुरुष उपरत यानी सावध कर्म से निवृत्त है। ऐसा सर्व सावध कर्म से निवृत्त पुरुष इस जैन शासन में ही होता है, अन्यत्र नहीं होता है। ऐसा पुरुष ही अनगार कहलाता है।
विवेचन - जो वनस्पतिकाय का स्वयं आरम्भ नहीं करता है, दूसरों से नहीं करवाता है और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करता है वही अनगार कहा जाता है। जो इससे विपरीत आचरण करता है, वह अनगार नहीं है। संसार एवं संसार परिभ्रमण का कारण
(३९) जे गुणे से आवहे, जे आवटे से गुणे। कठिन शब्दार्थ - गुणे - गुण - शब्दादि विषय, आवट्टे - आवर्त - संसार।
भावार्थ - जो गुण - शब्दादि विषय हैं वह आवर्त - संसार है। जो आवर्त - संसार है वही गुण है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में संसार क्या है? और संसार परिभ्रमण का कारण क्या है? इसका स्पष्टीकरण किया गया है। श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन, इन पांचों इन्द्रियों के शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श, ये जो पांच विषय हैं, उन्हें 'गुण' कहते हैं तथा संसार को 'आवर्त' कहते हैं। कहा भी है -
.. . 'आवर्तन्ते-परिभ्रमन्ति प्राणिनो यत्र स आवतः-संसारः" अर्थात् - जिसमें प्राणियों का आवत-परिभ्रमण होता रहे, उसे आवर्त-संसार कहते हैं।
यद्यपि आवर्त शब्द का अर्थ नदी आदि का भंवर भी होता है तथापि जैसे नदी आदि के भंवर में पड़ी हुई वस्तु निरन्तर भ्रमण करती रहती है इसी तरह संसार में पड़े हुए प्राणी भी
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