SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक - अग्नि शस्त्र और संयम अशस्त्र है ३५ भावार्थ - जो पुरुष प्रमादी है अग्नि के रांधना-पकाना आदि गुणों का अर्थी है वह निश्चय ही हिंसक - प्राणियों को दण्ड देने वाला कहा जाता है। .. बुद्धिमान् पुरुष अग्निकाय के आरम्भ को समस्त प्राणियों का घातक जान कर यह निश्चय करे कि पहले प्रमाद के कारण मैंने जो अग्निकाय का आरम्भ किया था सो अब नहीं करूँगा। विवेचन - मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा, ये पांच प्रमाद हैं। जो प्रमाद का सेवन करने वाला है तथा रसोई बनाने, प्रकाश करने और शीत निवारण आदि प्रयोजनों के लिए अग्निकाय का आरम्भ करता है तो वह जीवों का दण्ड (हिंसक) बन जाता है क्योंकि अग्नि के आरम्भ से छहों काय के जीवों का घात होता है। इस प्रकार अग्निकाय के आरम्भ के बुरे परिणामों को जान कर बुद्धिमान् पुरुष उसका सर्वथा त्याग कर दे। (३२) . लज्जमाणा पुढो पास-अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे, अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ। कठिन शब्दार्थ - अगणिकम्म समारंभेणं - अग्निकाय के आरम्भ के द्वारा, अगणिसत्थंअग्निकाय रूप शस्त्र का। __ भावार्थ - आत्म साधक अग्निकाय का आरम्भ करने में लज्जा का अनुभव करते हैं तू उन्हें पृथक् देख! अर्थात् अप्काय का आरम्भ करने वाले साधुओं से उन्हें भिन्न समझ। - कुछ साधु वेषधारी "हम अनगार-गृहत्यागी हैं" ऐसा कथन करते हुए भी नानाप्रकार के शस्त्रों से अग्नि संबंधी हिंसा में लग कर अग्निकायिक जीवों का आरम्भ-समाराम्भ करते हैं . तथा अग्निकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। . विवेचन - जो अग्निकाय का स्वयं आरम्भ-समारम्भ नहीं करते हैं, दूसरों से नहीं करवाते हैं और आरम्भ समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते हैं वे ही सच्चे अनगार हैं। ऐसे आत्म साधकों को अग्निकाय का आरम्भ करने वाले वेशधारी साधकों से पृथक् समझने का सूत्रकार का निर्देश है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy