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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) BRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR888
जो वेशधारी साधु अपने आप को अनगार कहते हुए भी गृहस्थ के समान अग्निकाय का आरम्भ समारम्भ करते हैं वे वास्तव में अनगार नहीं हैं। ऐसे साधुओं का अनुकरण नहीं करना चाहिये।
अग्निकायिक हिंसा के कारण
(३३) तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण-पूयणाए, जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव अगणिसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा अगणिसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा अगणिसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ। तं से अहियाए, तं से अबोहिए।
. भावार्थ - इस अग्निकाय के आरम्भ के विषय में निश्चय ही भगवान् महावीर स्वामी ने परिज्ञा (विवेक) फरमाई है। इस जीवन के लिए. अर्थात् इस जीवन को नीरोग और चिरंजीवीं बनाने के लिए परिवन्दन-प्रशंसा के लिए, मान के लिए, पूजा प्रतिष्ठा के लिए जन्म मरण से छूटने के लिए और दुःखों का नाश करने के लिए वह स्वयं तेजस्कायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। यह हिंसा उसके लिए अहित के लिए होती है, उसकी अबोधि के लिए होती है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि अज्ञानी जीव किन किन कारणों से अग्निकाय का आरम्भ समारम्भ करते हैं। यह आरम्भ उस जीव के लिए अहितकारी और दुःखदायक होता है तथा अबोधि अर्थात् ज्ञान बोधि, दर्शन बोधि और चारित्र बोधि की अनुपलब्धि के कारणभूत होता है अतः विवेकी पुरुष को अग्निकाय के आरम्भ से बचना चाहिए। .
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(३४)
से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा, खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवइ एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए। ___ इच्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्म-समारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ।
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