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प्रथम अध्ययन
तीसरा उद्देशक - अप्काय की सजीवता
भी भी भी भी भी भी भी भी भी भी भी भी भी भी श्री श्री
महापथ
विवेचन अहिंसा एवं संयम के प्रशस्त पथ को प्रस्तुत सूत्र में महावी कहा है क्योंकि यह पथ सर्वदा, सर्वत्र सब के लिए एक समान है। इस संयम रूप राजमार्ग पर चलने वालों के लिए देश, काल, सम्प्रदाय व जाति की कोई सीमा या बंधन नहीं है। शाश्वत सुख के स्थान मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक सभी जन इस पथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे फिर ' भी यह कभी संकीर्ण नहीं होता अतः यह महावीथी महापथ है। अनगार इस महापथ के प्रति सम्पूर्ण भाव से समर्पित होते हैं।
लोयं अब्भाइक्खा |
परीषह, उपसर्ग और कषायों को जीतने में समर्थ वीर पुरुष मोक्ष प्राप्ति के लिए संयम अंगीकार करते हैं। यहां संयम को 'अकुतोभय' कहा है जिसका अभिप्राय यह है कि संयम स्वीकार करने वाले पुरुष से सभी प्राणियों को अभयदान मिल जाता है। अतः बुद्धिमान् पुरुष ऐसे संयम का निरन्तर पालन करे ।
यहां अकाय का वर्णन चल रहा है इसलिए यहां 'लोक' शब्द से अप्काय रूप लोक लिया गया है।
अप्काय की सजीवता (२०)
से बेमि-णेव सयं लोगं अब्भाइक्खिज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खिज्जा । जे लोयं अब्भाइक्खड़, से अत्ताणं अब्भाइक्खड़, जे अत्ताणं अब्भाइक्खड़,
से
कठिन शब्दार्थ - अत्ताणं
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करे, अब्भाइक्खड़ अभ्याख्यान करता है।
आत्मा का, . अब्भाइक्खिज्जा
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भावार्थ मैं कहता हूँ कि बुद्धिमान् मनुष्य ( मुनि) स्वयं, लांक- अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप न करे तथा न अपनी आत्मा का अपलाप करे। जो पुरुष लोक का यानी अपकायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप करता है वह आत्मा का अपलाप करता हैं और जो आत्मा का अपलाप करता है वह लोक यानी अप्काय के जीवों के अस्तित्व का अपलाप करता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपनी आत्मा एवं अप्कायिक जीवों की आत्मा के साथ तुलना करके अपूकाय में चेतना - सजीवता है इस बात को सिद्ध किया है।
अभ्याख्यान-अपलाप
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