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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888888888888888888888888888888888888888888888
साधक का कर्तव्य
(१८) । जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया वियहित्तु * विसोत्तियं।
कठिन शब्दार्थ - जाए - जिस, सद्धाए - श्रद्धा से, णिक्खंतो - निष्क्रान्तः-घर से निकला है, दीक्षा धारण की है, अणुपालिया - पालन करे, वियहित्तु-विजहिता - छोड़ कर, विसोत्तियं- शंका को।
भावार्थ - जिस श्रद्धा अर्थात् निष्ठा एवं वैराग्य भावना के साथ दीक्षा अंगीकार की है, . शंका का त्याग कर उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे। .
विवेचन - दीक्षा धारण करते समय दीक्षार्थी के परिणाम बहुत उच्च होते हैं। बाद में उन परिणामों में वृद्धि करने वाला कोई भाग्यवान् व्यक्ति ही होता है किन्तु कितनेक व्यक्तियों के परिणाम गिर जाते हैं इसलिये आगमकार उपदेश देते हैं कि यदि तुम्हारे परिणाम बढे नहीं तो उन्हें घटने तो नहीं देना चाहिये किन्तु जिन उच्च परिणामों से दीक्षा ली है उन्हीं परिणामों के साथ जीवन पर्यन्त संयम का पालन करना चाहिए।
. (१६) पणया वीरा महावीहिं। लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुओभयं।
कठिन शब्दार्थ - पणया - प्रणत-समर्पित, वीरा - वीर पुरुष, महावीहिं - महावीथीसंयम रूप राजमार्ग - महापथ को, लोगं - लोक को अर्थात् अप्काय को, अभिसमेच्चा - सम्यक् प्रकार से जान कर, आणाए - आज्ञा से, अकुओभयं - अकुतोभय-जिससे किसी को भय नहीं हो अर्थात् संयम।
भावार्थ - वीर पुरुष संयम रूप राजमार्ग (महापथ). के प्रति प्रणत अर्थात् समर्पित होते हैं।
तीर्थंकर भगवान् के उपदेशानुसार अप्काय रूप लोक को अर्थात् अप्काय के जीवों का स्वरूप सम्यक् रूप से जान कर उत्तम पुरुष समस्त भयों से रहित संयम का पालन करे।
* पाठान्तरं - विजहित्ता
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