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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR
भावार्थ - वह साधक हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को समझता हुआ संयम साधना में तत्पर हो जाता है। कितनेक मनुष्यों को भगवान् के समीप अथवा अनगार मुनियों के समीप धर्म सुन कर यह ज्ञात होता है कि 'यह पृथ्वीकाय का आरम्भ (जीव हिंसा) ग्रंथ - ग्रंथि है, यह मोह है, यह मृत्यु है और यही नरक है।'
फिर भी विषयभोगों में आसक्त जीव अपने वन्दन, पूजन और सम्मान आदि के लिए नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वीकाय के आरम्भ में संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है तथा पृथ्वीकायिक हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की भी हिंसा करता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'गंथे' शब्द का अर्थ टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार किया है - 'गंथिज्जइ तेण तओ तम्मि व तो तं मयं गंथो'
(विशेषा० १३८३, अभि० राजेन्द्र ३/७६३) अर्थात् - जिसके द्वारा, जिससे तथा जिसमें बंधा जाता है, वह ग्रंथ है।
उत्तराध्ययन, आचारांग, स्थानांग आदि सूत्रों में कषाय को ग्रंथ या ग्रंथि कहा है। अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ३/७६३ में आत्मा को बांधने वाले कषाय या कर्म को भी ग्रंथ कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में हिंसा को ग्रन्थ या ग्रन्थि कहा है क्योंकि यह कर्मबन्ध का मूल कारण है। पृथ्वीकायिक आदि जीवों को वेदना का अनुभव
(१५) . से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पायमल्भे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमन्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमन्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमन्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे उरुमब्भे, अप्पेगे उरुमच्छे, अप्पेगे कडिमन्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, अप्पेगे णाभिमन्भे, अप्पेगे णाभिमच्छे, अप्पेगे उयरमन्भे, अप्पेगे उयरमच्छे, अप्पेगे पासमन्भे, अप्पेगे पासमच्छे, अप्पेगे पिट्ठमन्भे, अप्पेगे पिटुमच्छे, अप्पेगे उरमन्भे, अप्पेगे उरमच्छे, अप्पेगे हिययमन्भे, अप्पेगे हिययमच्छे, अप्पेगे थणमब्भे, अप्पेगे थणमच्छे,
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