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प्रथम अध्ययन द्वितीय उद्देशक - हिंसा के कारण
ॐ भी भी भी भी
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माणण-पूयणाए, जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेडं, से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाण । तं से अहियाए, तं से अबोहिए ।
कठिन शब्दार्थ - अहियाए - अहित के लिये, अबोहिए - अबोधि के लिए।
भावार्थ - इस पृथ्वीकाय के आरम्भ के विषय में निश्चय ही भगवान् श्री महावीर स्वामी ने परिज्ञा फरमाई है। इस जीवन के लिये, अर्थात् इस जीवन को नीरोग और चिरंजीवी बनाने के लिये और परिवन्दन - प्रशंसा के लिये, मान के लिए तथा पूजा-प्रतिष्ठा के लिये, जन्म-मरण से छूटने के लिए और दुःखों का नाश करने के लिए वह स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। यह हिंसा उसके अहित के लिए होती है, उसकी अबोधि के लिए होती है ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि अज्ञानी जीव किन किन कारणों से पृथ्वीकाय का आरम्भ करते हैं। यह आरम्भ उस जीव के अहित के लिए होता है अर्थात् उसका हित नहीं होता है तथा यह हिंसा उस जीव के लिए अबोधि अर्थात् ज्ञान-बोधि, दर्शन - बोधि और चारित्र - बोधि की अनुपलब्धि के लिए कारणभूत होती हैं अतः विवेकी पुरुष को पृथ्वीकाय के आरम्भ से बचना चाहिये ।
(१४)
तं बुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा खलु भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए, इहमेगेसिं णायं भवइ - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए ।
इच्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्म-समारंभेण पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ।
आदानीय-ग्रहण करने सोच्चा - सुन
कठिन शब्दार्थ - संबुज्झमाणे समझता हुआ, आयाणीयं योग्य-सम्यग्दर्शन, संयम, विनय, समुट्ठाय - समुत्थाय सम्यक् रूप से उद्यत, कर, गंथे - ग्रंथ (ग्रंथि) - कर्म बंध का कारण, मोहे - मोह, मारे - मृत्यु, णरए नरक, इच्चत्थं - इच्चेवमट्ठ - वंदन, पूजन और सम्मान आदि के लिए, गढिए - मूर्च्छित ( आसक्त ) ।
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