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नववा अध्ययन - चौथा उद्देशक - भगवान् की तपाराधना ३३१ 參够事业 单体串串串串串串串郎來參參參參參華郵郵串串串串串串串串串脚本
कठिन शब्दार्थ - संसोहणं - संशोधन, वमणं - वमन, गायब्भंगणं - गात्राभ्यंगनशरीर को तैलादि से मर्दन करना, सिणाणं - स्नान, संबाहणं - संबाधन यानी हाथ पैरों की चम्पी, दंतपक्खालणं - दंतप्रक्षालन-दांतन, ण कप्पे - नहीं कल्पता।
भावार्थ - इस शरीर को अशुचिमय एवं नश्वर जान कर भगवान् विरेचन, वमन, तैल मर्दन, स्नान और संबाधन (पगचम्पी) आदि नहीं करते थे तथा दंत प्रक्षालन भी नहीं करते थे।
विवेचन - दीक्षा लेते ही भगवान् ने शरीर ममत्व का त्याग कर दिया था अतः वे शरीर की सेवा शुश्रूषा मंडन, विभूषा, साजसज्जा, सार संभाल आदि नहीं करते थे। वे शरीर को विस्मृत कर एक मात्र आत्मा की चिंता करते हुए साधना में लीन रहते थे। यही कारण है कि शरीर संशोधन के लिए विवेचन, वमन, मर्दन आदि नहीं करते थे।
(५१५) विरए य गामधम्मेहिं रीयइ माहणे अबहुवाई। सिसिमि एगया भगवं, छायाए झाइ आसी य॥
कठिन शब्दार्थ - विरए - विरत, गामधम्मेहिं - इन्द्रियों के विषयों से, अबहुवाई - अल्प भाषी, छायाए - छाया में।
भावार्थ - इन्द्रिय विषयों से विरक्त महामाहन भगवान् अल्पभाषी होकर विचरते थे और कभी कभी शिशिर ऋतु (शीतकाल) में छाया में बैठ कर ध्यान करते थे।
भगवान् की तपाराधना
(५१६) . आयावइ य गिम्हाणं अच्छइ उक्कुडुए अभितावे। अदु जावइत्थ लूहेणं, ओयणमंथुकुम्मासेणं॥
कठिन शब्दार्थ - आयावइ - आतापना, गिम्हाणं - ग्रीष्म ऋतु में, अच्छइ - बैठते थे, उक्कुडुए - उत्कटुक आसन से, अभितावे - 'सूर्य के ताप के सामने, लूहेण - रूक्ष, ओयणमंथुकुम्मासेणं - ओदन (भात), मंथु (बेर का आटा-बोरकूट) और कुल्माष-कुलथीउडद आदि से, जावइत्थ - निर्वाह करते थे।
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