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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888888888888888888888888888888888
भावार्थ - भगवान् ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते थे। उकडू आसन से सूर्य के ताप के सामने मुख करके बैठते थे तथा रूक्ष भात, मथु, बोरकूट, कुल्माष (कुलथी) आदि से शरीर का निर्वाह करते थे।
(५१७) एयाणि तिण्णि पडिसेवे, अट्टमासे य जावयं भगवं। अवि इत्थ एगया भगवं, अद्धमासं अदुवा मासंपि ॥
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उक्त तीनों पदार्थों से आठ मास तक जीवन यापन किया। कभी कभी भगवान् ने अर्द्ध मास अथवा मास पर्यंत पानी नहीं पीया।
(५१८) अवि साहिए दुवे मासे, छप्पिमासे अदुवा अपिवित्ता। राओवरायं विहरित्था अपडिण्णे अण्णगिलायमेगया भुंजे॥
कठिन शब्दार्थ - साहिए - साधिक - कुछ अधिक, राओवरायं - रात्रौपरात्र - रातदिन, अण्णगिलायं - बासी (ठण्डा) अन्न - जो रस चलित नहीं हुआ हो।
भावार्थ - भगवान् ने दो महीने से अधिक तथा छह महीने तक भी जल नहीं पीया। वे रात दिन जागृत रह कर परीषह उपसर्गों का किसी भी प्रकार प्रतिकार न करते हुए निरीह भाव से विचरते थे और कभी कभी आहार करते थे किन्तु वह भी ठण्डा आहार करते थे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा से स्पष्ट होता है कि भगवान् ने सर्वोत्कृष्ट छह माह का तप किया और इस दीर्घ तप में भी पानी का सेवन नहीं किया अर्थात् भगवान् की तपस्या चौविहार थी - भगवान् ने जितनी भी तपस्या की थी उसमें पानी नहीं पिया था। पारणे में भी बासी अन्न - ठण्डा भोजन - पहले दिन का बना हुआ आहार ग्रहण किया था। जो लोग बासी आहार को अभक्ष्य कहते हैं उनके लिये यह स्पष्ट आगम प्रमाण है कि भगवान् महावीर स्वामी ने स्वयं बासी आहार ग्रहण किया है ऐसी स्थिति में उसे अभक्ष्य कैसे कहा जा सकता है? यह ठीक है कि ऐसा बासी आहार साधु को नहीं लेना चाहिये जिसका रस कृत हो गया हो परन्तु जिसका वर्ण, गंध, रस आदि विकृत नहीं हुआ है उस आहार को अभक्ष्य कहना आगम विरुद्ध है।
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