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________________ ३३० आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) ease 8888888888888888888888888888 88888 णवमं अज्झयणं चउत्थोडेसो नवम अध्ययन का चौथा उद्देशक तीसरे उद्देशक में भगवान् को दिये गये परीषह उपसर्गों का कथन किया गया है। अब इस चौथे उद्देशक में भगवान् की कठोर तप साधना का वर्णन किया जाता है - (५१३) ओमोयरियं चाएइ, अपुढेवि भगवं रोगेहि। पुट्ठो वा से अपुट्ठा वा, णो से साइजइ तेइच्छं॥ . कठिन शब्दार्थ - ओमोयरियं - ऊनोदरी तप को, चाएइ - करने में समर्थ थे, अपुढेस्पृष्ट न होने पर, णो साइजइ - नहीं चाहते थे, तेइच्छं - चिकित्सा। भावार्थ - भगवान् रोगों से स्पृष्ट (आक्रांत) नहीं होने पर भी ऊनोदरी तप करते थे। रोगादि के होने पर अथवा नहीं होने पर भगवान् कभी भी चिकित्सा करवाना नहीं चाहते थे। विवेचन - शरीर रोगों का घर है। इसमें अनेक रोग रहे हुए हैं। जब कभी वेदनीय कर्म के उदय से कोई रोग होता है तो लोग उसे उपशांत करने के लिए अनुकूल औषध एवं पथ्य का सेवन करते हैं परन्तु भगवान् महावीर स्वामी अस्वस्थ अवस्था में भी औषध सेवन नहीं करते थे। वे स्वस्थ अवस्था में भी ऊनोदरी तप (स्वल्प आहार) करते थे अतः उन्हें कोई रोग नहीं होता था फिर भी कुत्तों के काटने या अनार्य लोगों के प्रहार से जो घाव आदि हो जाते थे तो वे उसके लिए भी चिकित्सा नहीं करते थे। वे समस्त परीषहों को समभाव से सहन करते थे और तप के द्वारा द्रव्य एवं भाव रोग को दूर करने का प्रयत्न करते थे। शरीर ममत्व का त्याग (५१४) संसोहणं च वमणं च, गायन्भंगणं च सिणाणं च। संबाहणं ण से कप्पे, दंतपक्खालणं च परिणाए॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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