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________________ ❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀ नववा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - मोक्ष मार्ग में पराक्रम सूरो संगामसीसे वा, संवुडे तत्थ से महावीरे । पडिसेवमाणो फरुसाई, अचले भगवं रीइत्था ॥ ❀❀❀❀❀ मोक्ष मार्ग में पराक्रम (५११) Jain Education International भावार्थ - जैसे शूरवीर पुरुष संग्राम के अग्र भाग में युद्ध करता हुआ शत्रुओं द्वारा क्षुब्ध ( विचलित) नहीं होता उसी प्रकार संवर का कवच पहने हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी लाढ़ देश में विचरते हुए परीषह रूपी सेना से क्षुब्ध ( विचलित) नहीं होते थे अपितु उन कठोर परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करते हुए मेरुपर्वत की तरह अपने व्रतों एवं ध्यान में अचल रह कर संयम में विचरण करते थे, मोक्ष मार्ग में पराक्रम करते थे । (५१२) एस विही अणुक्कंतो, माहणेण मईमया । बहुसो अपडिण्णेणं भगवया एवं रीयंति ॥ त्ति बेमि ॥ L ३२६ ॥ णवमं अज्झयणं तइओसो समत्तो ॥ भावार्थ मतिमान श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बहुत बार निदान रहित इस विधि का आचरण किया था अतः मोक्षार्थी आत्माओं को भी इस विधि का आचरण करना चाहिये - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रस्तुत उद्देशक में वर्णित संयमानुष्ठान - संयमविधि का स्वयं पालन किया है और आत्मविकास के अभिलाषी इस विधि का आचरण करते हैं अतः अन्य मोक्षार्थी पुरुषों को भी उनका अनुकरण करना चाहिए। ॥ इति नवम अध्ययन का तीसरा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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