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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) WORRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR
कठिन शब्दार्थ - सीओदगं - शीतोदक - कच्चे पानी का, अभोच्चा - सेवन नहीं कर, णिक्खंते- दीक्षा ग्रहण की, एगत्तगए - एकत्व भावना से भावित चित्त वाले, पिहियच्चे - क्रोध . की ज्वाला को शांत कर लिया, अहिण्णायदसणे - ज्ञान, दर्शन से भावित, संते - शांत। ..
भावार्थ - दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक सचित्त जल का सेवन न करके भगवान् ने दीक्षा अंगीकार की थी। वे एकत्व भावना से ओतप्रोत, क्रोध की ज्वाला को शांत किये हुए सम्यग् ज्ञान दर्शन से युक्त शांतचित्त थे।
विवेचन - अपने - माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के बाद भगवान् दीक्षा लेने को तैयार हुए किन्तु भाई नंदीवर्द्धन और अन्य परिवारजनों के अत्याग्रह से दो वर्ष से कुछ अधिक समय भगवान् गृहस्थावास में और ठहरे थे। उस समय भगवान् ने कच्चे (सचित्त) जल का सेवन नहीं किया था। गृहस्थ अवस्था में रहते हुए भी 'मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी का हूँ' इस प्रकार की एकत्व भावना से ओतप्रोत हो गये। ___ 'पिहियच्चे' (पिहिताय॑ /पिहितार्च) शब्द के चूर्णिकार ने दो अर्थ किये है - १. जिसके आस्रव द्वारा बंद हो गए हैं और २. जिसकी अप्रशस्त भाव रूप अर्चियां अर्थात् राग द्वेष रूप अग्नि की ज्वालाएं शांत हो गयी हैं। ..
टीकाकार ने इससे भिन्न दो अर्थ इस प्रकार किये हैं- १. जिसने अर्चा - क्रोध-ज्वाला शांत कर दी है और २. अर्चा यानी शरीर को जिसने संगोपित कर लिया है वह भी पिहिता है। भगवान् की विवेक युक्त चर्या
(४७३) पुढविं च आउक्कायं, तेउक्कायं च वाउक्कायं च। पणगाई बीयहरियाइं तसकायं च सव्वसो णच्या॥ . एयाई संति पडिलेहे, चित्तमंताई से अभिण्णाय। परिवजिय विहरित्था, इइ संखाय से महावीरे॥
कठिन शब्दार्थ - पणगाई - पनक, बीपहरिपाई - बीज, हरित, वित्तमंताई सचित्त, पडिलेहे- विचार कर, अभिण्णाय - समझ कर, परिवजिय - त्याग करके।
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