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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
विवेचन - भगवान् प्रायः एकान्तसेवी थे परन्तु कभी-कभी जब उनको ऐसा निवास स्थान प्राप्त होता जिससे गृहस्थ और अन्यतीर्थिक साधु भी होते, उस स्थान पर यदि कोई स्त्री मैथुन के लिए प्रार्थना करती तो भगवान् उन्हें जान कर यानी ज्ञ परिज्ञा से शुभगति बाधक समझ कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनका त्याग कर मैथुन सेवन नहीं करते थे और धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्याते हुए वैराग्य मार्ग में ही स्थित रहते थे।
(४६८) जे के इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाइ। पुट्ठो वि णाभिभासिंसु, गच्छइ णाइवत्तइ अंजू॥
कठिन शब्दार्थ - मीसीभावं - मिश्रीभाव - संसर्ग को, णाभिभासिंसु - बोलते नहीं थे, णाइवत्तइ- अतिक्रमण नहीं करते थे।
भावार्थ - यदि कभी गृहस्थों से युक्त स्थान प्राप्त हो जाता तो वे उनमें घुलते मिलते नहीं थे। वे उनके संसर्ग का त्याग करके शुभ ध्यान में लीन रहते थे। वे किसी के पूछने पर अथवा नहीं पूछने पर भी नहीं बोलते थे। कोई बोलने के लिए बाध्य करता तो वे अन्यत्र चले जाते, किन्तु संयमानुष्ठान में तत्पर भगवान् मोक्षमार्ग का अतिक्रमण नहीं करते थे।
(४६६) णो सुकरमेयमेगेसिं, णाभिभासे अभिवायमाणे। . हयपुव्वो तत्थ दंडेहिं, लूसियपुव्वो अप्पपुण्णेहिं॥
कठिन शब्दार्थ - णो सुकरं - सुगम (सरल) नहीं है, अभिवायमाणे - अभिवादन करने (वंदन करने) वालों से, हयपुव्वो - हनन किये जाने पर, लूसियपुव्वो - छेदन-भेदन करने पर, अप्पपुण्णेहिं - पुण्य रहित - पापी अनार्य पुरुषों द्वारा। - भावार्थ - यह दूसरे सामान्य पुरुषों के लिए सरल नहीं है कि अभिवादन (वंदन) करने वालों से बोले नहीं और अनार्य पुरुषों द्वारा डण्डे आदि से मारने-पीटने पर, अंगों का छेदन भेदन किये जाने पर कुपित नहीं होवे।
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