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नववां अध्ययन - प्रथम उद्देशक - भगवान् की ध्यान साधना ३०७ ****參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參 भगवान् की ध्यान साधना
(४६६) अदु पोरिसिं तिरियंभित्ति, चक्खुमासज अंतसो झाइ। अह चक्खुभीया सहिया, ते हंता हंता बहवे कंदिसु॥
कठिन शब्दार्थ - पोरिसिं - पुरुष परिमाण, तिरियभित्तिं - तिर्यक् (तिरछे) भाग पर, चक्टुं - दृष्टि को, आसज - लगा कर, आगे रख कर, झाइ - ईर्या समिति पूर्वक गमन करते अथवा ध्यान करते थे, चक्खुभीया - देख कर भयभीत बने हुए, सहिया - एकत्रित होकर, हंता - मार कर, कंदिसु - पुकारते।
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुरुष परिमाण भूमि को आगे देखते हुए ईर्या समिति पूर्वक ध्यान रखते हुए गमन करते थे (अथवा एक प्रहर तक तिरछी भीत पर आंखे गडा कर अंतरात्मा में ध्यान करते थे)। इस प्रकार भगवान् को देख कर भयभीत बने हुए बहुत से बालक एकत्रित हो कर 'मारो-मारो' चिल्लाते हुए अन्य बालकों को पुकारते थे।
विवेचन - इस प्रकार भगवान् को देख कर भयभीत बने हुए छोटे-छोटे बालक उन्हें उपसर्ग देते थे। वे उन पर धूलि फेंकते थे तथा मुक्कों आदि से मारते थे और कौतुक देखने के लिए दूसरे बच्चों को भी कोलाहल कर पुकारते थे।
(४६७) सयणेहिं वितिमिस्सेहिं, इत्थीओ तत्थ से परिण्णाय। . सागारियं ण से सेवे इति, से सयं पवेसिया झाइ।
कठिन शब्दार्थ - सयणेहिं - शय्या अर्थात् स्थान में, वितिमिस्सेहिं - व्यतिमिश्रित-गृहस्थ और अन्यतीर्थियों से संयुक्त, सागारियं - सागारिक - मैथुन का, पवेसिया - प्रविष्ट होकर।
भावार्थ - किसी कारण वश गृहस्थ और अन्यतीर्थियों से संयुक्त स्थान में ठहरे हुए, भगवान् को देख कर कामाकुल स्त्रियाँ उन्हें मैथुनादि की प्रार्थना करतीं तो वे भोग को कर्म बंध का कारण जान कर मैथुन सेवन नहीं करते थे। वे स्वयं अपनी आत्मा को वैराग्य मार्ग में प्रविष्ट कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लीन रहते थे।
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