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________________ नववां अध्ययन - प्रथम उद्देशक ३०५ * *串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串、 सभी पदार्थों का त्याग कर दिया था। अतः उस वस्त्र को धारण करने का एक मात्र यही कारण था कि पूर्व के समस्त तीर्थंकरों ने देवदूष्य वस्त्र को धारण किया था। आचारांग टीका पत्रांक ३०१ कहा गया है - - ‘से बेमि जे य अईया, जे य पडुप्पण्णा, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो जे य पव्वयंति जे य पव्वइस्संति सव्वे ते सोवहिधम्मो देसिअव्वो त्ति कटु तित्थधम्मयाए एसा अणुधम्मिगत्ति एणं देवदूसमायाए पव्वइंसु वा पव्वयंति वा पव्वइस्संति व ति।' - मैं कहता हूँ कि जो अर्हन्त भगवान् अतीत में हो चुके हैं, वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे उन्हें सोपधिक (धर्मोपकरण युक्त) धर्म को बताना होता है। इस दृष्टि से तीर्थधर्म के लिए यह अनुधर्मिता है। इसीलिए तीर्थंकर एक देवदूष्य वस्त्र लेकर प्रव्रजित हुए हैं, प्रव्रजित होते हैं एवं प्रव्रजित होंगे। भगवान् के लिये यह पूर्वाचरित धर्म था। इसीलिए उन्होंने देवदूष्य वस्त्र धारण किया था, शीत निवारण के लिए नहीं। . . (४६४) चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया आगम्म*। अभिरुज्झकायं विहरिंसु, आरुसियाणं तत्थ हिंसिंसु॥ कठिन शब्दार्थ - साहिए - साधिक - कुछ अधिक, पाणजाइया - प्राणिजातयः - भ्रमर आदि प्राणी, अभिरुज्झ - बैठ कर, आरुसिया - अत्यंत रुष्ट होकर, मांस व रक्त के लिए शरीर पर चढ़कर। भावार्थ - कुछ अधिक चार मास तक बहुत से भ्रमर (भौरे) आदि प्राणी आकर भगवान् के शरीर पर बैठ जाते और रसपान के लिए मंडराते रहते। वे रुष्ट हो कर रक्त मांसादि के लिए भगवान् के शरीर को डसते एवं नोंचने लगते। ___ * 'पाणजाइया आगम' के स्थान पर 'पाणजातीया आगम्म' एवं 'पाणजाति आगम्म' पाठ मिलता है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है - भौरें या मधुमक्खियाँ आदि बहुत से प्राणिसमूह आते थे, वे प्राणिसमूह उनके शरीर पर चढ़ कर स्वच्छंद विचरण करते थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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