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स्वाद लेने के लिए आहार को बाएं जबड़े (दाढ) से दाहिने जबड़े में न ले जाए, इसी प्रकार स्वाद लेते हुए दाहिने जबड़े से बाएं जबड़े में न ले जाए। इस प्रकार वह साधु (या साध्वी) स्वाद न लेता हुआ लाघव भाव का चिंतन करते हुए आहार करे। ऐसा करने से उसे ऊणोदरी, वृत्तिसंक्षेप और कायक्लेश तप का सहज ही लाभ होता है। भगवान् ने जिस प्रकार स्वाद त्याग का प्रतिपादन किया है उसे उसी प्रकार सम्यक् रूप से सर्वात्मना जानकर सम्यक्त्व या समत्व को जाने और उसका आचरण करे ।
विवेचन
तप संयम की आराधना करने वाला साधक आहार में आसक्ति भाव का स्वाद लोलुपता का त्याग करे। उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३५ गा० १७ में प्रभु ने फरमाया है।
अलोले ण रसे गिद्धे, जिब्भादंते अमुच्छिए ।
आठवां अध्ययन छठा उद्देशक - इंगित मरण साधना
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ण रसट्ठाए भुंजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी ॥
अर्थात् जिह्वा को वश में करने वाला अनासक्त मुनि सरस आहार में या स्वाद में लोलुप और गृद्ध न हो । महामुनि स्वाद के लिए नहीं अपितु संयमी जीवन यापन के लिए आहार करे । इंगित मरण साधना (४३१)
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ, से गिलामि च खलु अहं इमंमि समए इमं सरीरगं. अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेज्जा अणुपुव्वेण आहारं संवट्टित्ता, कसाए पयणुए किच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे अणुपविसित्ता ।
गामं वा, यरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मंडबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, संणिवेसं वा, णिगमं वा, रायहाणिं वा, तणाई जाएज्जा, तणाई जाइत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता, अप्पंडे - अप्पपाणे - अप्पबीए- अप्पहरिए- अप्पोसे - अप्पोदए- अप्पुत्तिंग - पणग- दग मट्टियमक्कडासंताणए पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तणाई संथरेज्जा तणाई संथरेत्ता एत्थवि समए इत्तरियं कुज्जा ।
कठिन शब्दार्थ- परिवहित्तए धारण करने में एवं संयम की आवश्यक क्रियाओं में
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