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________________ २८४ - चला प्रवृत्ति कराने में, संवट्टिज्जा - संवर्तन (संक्षेप) करे, पयणुए पतला (स्वल्प), समाहियच्चेसमाहितार्च - समाधि को प्राप्त करे, फलगावयट्ठी - फलक (लकड़ी के पट्टे) की तरह शरीर और कषाय दोनों को कृश कर अवस्थित, अभिणिव्वुडच्चे - शरीर संताप से रहित हो जाए, तणाई तृणों की, जाइज्जा याचना करे, गं एकान्त में, अवक्कमिज्जा जाय, अप्पंडे - अण्डे रहित, अप्पहरिए - दूब आदि हरी लिलोती से रहित, अप्पोसे - ओस रहित, अप्पोदए - जल रहित, अप्पुत्तिंग पणग दग मट्टिय मक्कडा संताणए - कीड़ी नगरा, लीलन फूलन सचित्त मिट्टी, मकड़ी के जालों आदि से रहित स्थान, संथरिज्जा - संथारा करें, संस्तारक - बिछौना बिछावे, इत्तरियं - इत्वरिक - इंगित मरण की । भावार्थ - जिस साधु के मन में ऐसा विचार होता है कि इस समय मैं सचमुच ग्लान हो गया हूँ अतः इस शरीर को अनुक्रम से धारण करने में एवं संयम की आवश्यक क्रियाओं में प्रवृत्ति कराने में समर्थ नहीं हूँ। ऐसी स्थिति में वह साधु क्रमशः तप के द्वारा आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे। आहार का संक्षेप करके कषायों को पतला करे । कषायों को स्वल्प करके समाधियुक्त लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय दोनों से कृश बना हुआ ह भिक्षु समाधि मरण के लिए उत्थित होकर शरीर के संताप से ह जाय । आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध) ❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀ - Jain Education International - २. यरं (नगर - नकर) आबादी को नगर ( नकर) कहते हैं। ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सन्निवेश, निगम और राजधानी में प्रवेश करके सूखे तृणों की याचना करे। तृणों की याचना करके उसे लेकर एकान्त में चला जाय। वहाँ एकान्त स्थान में जाकर जहाँ कीड़े आदि के अण्डे, जीव जन्तु, बीज, हरीघास, ओस, उदक, चींटियों के बिल (कीड़ी नगरा) लीलन फूलन (काई) पानी का दलदल या मकड़ी के जाले न हों उस स्थान का बार-बार प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके घास का संस्तारक करे। घास का बिछौना बिछा कर उस पर स्थित हो उस समय इत्वरिक अनशन ( इंगित मरण) ग्रहण कर ले। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में इंगित मरण का विधान और उसकी विधि का वर्णन किया गया हो सूत्र में आए हुए गामं वा आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है १. गामं (ग्राम) - जहाँ राज्य की तरफ से अठारह प्रकार का कर (महसूल) लिया जाता हो उसे ग्राम कहते हैं। - For Personal & Private Use Only जहाँ ग्राम, बैल आदि का कर न लिया जाता हो उस बड़ी www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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