SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 您事事密密密密密的密密密部部參事串串串串串串串串串串串种密密部本非事事事 लघुभूत (हलका) बनाते हुए उसे सहज ही तप की प्राप्ति होती है यावत् सम्यक्त्व या समत्व को भलीभांति जान कर आचरण करे। विवेचन - मोक्षार्थी साधक ऐसा विचार करे कि “मैं अकेला हूं। इस अनादि संसार में भ्रमण करता हुआ मैं अनादिकाल से चला आ रहा हूं। मेरा कोई वास्तविक सहायक नहीं है और मैं भी किसी के दुःख का नाश करने में समर्थ नहीं हूं। संसार के सभी प्राणी अपने किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं।" इसी प्रकार एकत्व भावना का विचार करते हुए साधक को किस फल की प्राप्ति होती है इसके लिये उत्तराध्ययन सूत्र अ० २६ में प्रभु ने फरमाया है - "सहाय पञ्चक्खाणेणं जीवे एगीभावं जणयइ। एगीभावभूए य ण जीवे अप्पसद्दे, अप्पझंझे, अप्पकलहे, अप्पकसाए, अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए यावि भवइ।" ___अर्थात् सहाय प्रत्याख्यान से जीवात्मा एकीभाव को प्राप्त करता है। एकीभाव से ओतप्रोत साधक एकत्व भावना करता हुआ बहुत कम बोलता है, उसके झंझट बहुत कम हो जाते हैं कलह भी अल्प हो जाते हैं, कषाय भी कम हो जाते हैं, तू-तू मैं-मैं भी समाप्त प्रायः हो जाती है, उसके जीवन में संयम और संवर प्रचुर मात्रा में आ जाते हैं, वह आत्मसमाहित हो जाता है। आहार में अस्वादवृत्ति (४३०) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा ४ आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेजा आसाएमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं णो संचारेजा आसाएमाणे से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे, तवे से अभिसमण्णागए भवइ। जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमेच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया। कठिन शब्दार्थ - वामाओ - बाएं, हणुयाओ - जबडे (दाढ) से, दाहिणं - दाहिने, आसाएमाणे - स्वाद लेने के लिए, संचारिजा - संचारित करे, अणासायमाणे - स्वाद न लेता हुआ। भावार्थ - वह साधु या साध्वी अशन, पान, खादिम या स्वादिम का आहार करते समय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy