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________________ आठवां अध्ययन छठा उद्देशक - एक वस्त्रधारी साधु का आचार ६ ६ ६ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ॐ अहं अज्झयणं छट्टो उद्देसो आठवें अध्ययन का छठा उद्देशक पांचवें उद्देशक में भक्त प्रत्याख्यान का कथन किया गया है। अब इस छठे उद्देशक में इंगित मरण का कथन किया जाता है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है - एक वस्त्रधारी साधु का आचार (४२६) जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिए पायबिइएण, तस्स णं णो एवं भवइ, "बिइयं वत्थं जाइस्सामि" से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिग्गहियं वा वत्थं धारेज्जा जाव गिम्हे पडिवण्णे अहा परिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेज्जा २ त्ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे, जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया । २८१ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ एगो अहमंसि ण मे अत्थि कोइ ण याहमवि कस्स वि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ जाव समभिजाणिया । भावार्थ - जो भिक्षु (साधु) एक वस्त्र और दूसरा पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है उसके मन में यह विचार नहीं होता कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा। वह यथाएषणीय (अपनी मर्यादानुसार) वस्त्र की याचना करे और यथापरिगृहीत- जैसा वस्त्र मिला है उसे धारण करे। यावत् जब वह देखे कि शीत ऋतु चली गई है और ग्रीष्म ऋतु आ गई है तब वह जीर्ण वस्त्रों का त्याग करदे। जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके वह या तो एक शाटक-एक वस्त्र वाला होकर रहे अथवा अचेल वस्त्र रहित होकर अपने आप को लघु बनाता हुआ यावत् सम्यक्त्व या समत्व को भलीभांति जानकर आचरण करे । जिस साधु के मन में ऐसा विचार होता है कि 'मैं अकेला हूं मेरा कोई नहीं है और मैं किसी का नहीं हूं।' इस प्रकार वह अपने को एकाकी ही जाने। लाघव अपने आप को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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