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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 每部參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參事部
भावार्थ - कोई साधु ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरे साधर्मिक साधु के लिए आहारादि का अन्वेषण करूंगा और दूसरे साधर्मिक साधु द्वारा लाये हुए आहारादि को स्वीकार करूंगा। ___कोई साधु ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरे साधर्मिक के लिये आहारादि का अन्वेषण करूंगा किंतु दूसरों के द्वारा लाये हुए आहारादि को स्वीकार नहीं करूंगा।
कोई साधु ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरे साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि का अन्वेषण नहीं करूंगा किंतु दूसरे साधर्मिक द्वारा लाये हुए आहारादि को स्वीकार करूंगा, भोगूंगा। __कोई साधु ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरे साधर्मिक साधु के लिये आहारादि का अन्वेषण भी नहीं करूंगा और दूसरे साधर्मिक साधु द्वारा लाये हुए आहारादि को मैं भोगूंगा भी नहीं।
इस प्रकार से वह अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार धर्म का सेवन करता हुआ शांत, विरत और शुभ लेश्याओं से अपनी आत्मा को समाहित करने वाला होता है। प्रतिज्ञा के पालन में असमर्थता होने पर उस साधु के लिए भक्त प्रत्याख्यान आदि के द्वारा शरीर त्याग करना काल पर्याय - काल मृत्यु है। इस समाधि मरण से मरने वाला भिक्षु कर्मों का अंत करता है। यह मोह रहित पुरुषों का आश्रय, हितकारी, सुखकारी, कालोचित, निःश्रेयस्कर (मोक्षप्रदायी) और परलोक में भी साथ चलने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में परिहार विशुद्धिक या यथालंदिक साधु द्वारा ग्रहण की जाने वाली प्रतिज्ञाओं का वर्णन किया गया है। साधु इन स्वीकृत प्रतिज्ञाओं का भंग न करे, उस पर अटल रहे। प्रतिज्ञा पालन करते हुए मृत्यु निकट दिखाई देने लगे तो भक्त प्रत्याख्यान नामक अनशन करके समाधिमरण को स्वीकार करें किंतु अपनी प्रतिज्ञा न तोड़े।
भक्त प्रत्याख्यान द्वारा समाधि मरण प्राप्त करने वाले साधकों के लिए आगमों में इस प्रकार की विधि बताई है - जघन्य ६ मास, मध्यम ४ वर्ष और उत्कृष्ट १२ वर्ष तक कषाय
और शरीर की संलेखना एवं तप करे। इस प्रकार रत्नत्रयी की साधना करते हुए कर्म निर्जरा कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करे। - ॥ इति आठवें अध्ययन का पांचवां उदेशक समाप्त॥
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