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________________ आठवां अध्ययन - पांचवां उद्देशक - ग्लान-वैयावृत्य २७६ 部事部密密密密****密密密密密部部够密密密密密密密华參參參參參參參參參參參參參密密事那事奉非非 अहं वावि खलु अपडिण्णत्तो पडिण्णत्तस्स अगिलाणो गिलाणस्स, अभिकंख साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए। - कठिन शब्दार्थ - पगप्पे - आचार (प्रकल्प), पडिण्णत्तो - कहने पर, अपडिण्णत्तेहिंबिना आज्ञा दिये हुए अर्थात् नहीं कहने पर भी, गिलाणो - ग्लान (बीमार), अगिलाणेहिं - ग्लानि रहित, साहम्मिएहिं - साधर्मिक साधुओं के द्वारा, अभिकंख - निर्जरा की इच्छा से, कीरमाणं - की हुई, वेयावडियं - वैयावच्च को, साइजिस्सामि - स्वीकार करूंगा, करणाएकरने के लिए। भावार्थ - जिस साधु का यह आचार-नियम हो कि मैं ग्लान हो जाऊं तो अपनी सेवा के लिये निवेदन नहीं करने पर भी ग्लान रहित साधर्मिक साधुओं के द्वारा निर्जरा के उद्देश्य से की हुई वैयावृत्य को उनके द्वारा निवेदन करने पर मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूंगा। अथवा मैं ग्लानि रहितअग्लान-स्वस्थ होऊं तब सेवा के लिये निवेदन नहीं किया हुआ होने पर भी निर्जरा के उद्देश्य से परस्पर उपकार करने के लिये मैं ग्लान साधर्मिक साधु की वैयावच्च करूंगा। (४२८) ____ आहट्ट परिणं अणुक्खिस्सामि, आहडं च साइजिस्सामि १ आहटु परिणं आणक्खेस्सामि, आहडं च णो साइजिस्सामि २ आहट्ट परिणं, णो आणंक्लेस्सामि, आहडं च साइज्जिस्सामि ३ आहटु परिणं णो आणक्खेस्सामि, आहडं च णो साइजिस्सामि ४ एवं से अहाकिट्टियमेव, धम्मं समहिजाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेस्से तत्थावि तस्स कालपरियाए, से तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं हिस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि। ॥ अहं अज्झयणं पंचमोइसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - आहट्ट - ग्रहण करके, परिणं - प्रतिज्ञा को, अणुक्खिस्सामि - आहारादि का अन्वेषण करूंगा, आणक्खेस्सामि - अन्वेषण करूंगा, आहार लाऊंगा, साइज्जिस्सामि - भोगूंगा, अहाकिट्टियमेव - अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, सुसमाहियलेस्से - शुभ लेश्या वाला होकर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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