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प्रथम अध्ययन - प्रथम उद्देशक - आत्म बोध RRRRRRRRB888888888888888888888888888888888888 एवं वायव्य कोण ये चार अनुदिशाएं तथा इनके अनाराल में आठ विदिशाएं, ऊर्ध्व दिशा तथा अधोदिशा - इस प्रकार १८ द्रव्य दिशाएं हैं।
यद्यपि टीका में प्रज्ञापक दिशा के अट्ठारह भेद एवं द्रव्य दिशा के दस भेद किये गये हैं तथापि भाव दिशा के सिवाय शेष सभी प्रकार की दिशाओं को अपेक्षा से द्रव्य दिशा कहा जा सकता है। इसी कारण से यहाँ पर प्रज्ञापक दिशा को भी द्रव्य दिशा के नाम से बता कर उसके अठारह भेद बताए हैं। वास्तव में तो तेरह प्रदेशी स्कन्ध में दसों दिशाएं घटित होने से उसे ही द्रव्य दिशा कहा गया है। अपेक्षा से उपयुक्त प्रकार से समझना उचित हो सकता है।
२. भाव दिशाएं - १-४ मनुष्य की चार दिशाएं - सम्मूर्छिम, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तरद्वीपज ५-८ तिर्यंच की चार दिशाएं - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ६-१२ स्थावरकाय की चार दिशाएं - पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय और वायुकाय १३-१६ वनस्पतिकाय की चार दिशाएं - अग्रबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज और पर्वबीज, १७ देव और १८ नारक, इस प्रकार अठारह भाव दिशाएं होती हैं। ... जीव को अपने अस्तित्व का बोध किस प्रकार हो सकता है? इसके लिये आगे के सूत्र में कहा जाता है -
.. से जं पुण जाणेज्जा सहसम्मइयाए * परवागरणेणं, अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा, तंजहा-पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, जाव अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिं जंणायं भवइ, अस्थि मे आया उववाइए, जो इमाओ-दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचरइ सोहं। ... से आयावाई, लोयावाई, कम्मावाई, किरियावाई।
कठिन शब्दार्थ - सह सम्मइयाए - अपनी सन्मति-स्व बुद्धि से एवं जातिस्मरण ज्ञान द्वारा, परवागरणेण - पर-दूसरों के उपदेश से, अण्णेसिं - दूसरों के, अंतिए - पास से, सोच्चा - सुन कर, पुण - फिर, जाणेज्जा - जान लेता है, अणुसंघरइ - अनुसंचरण
• पाठान्तर - सहसम्मुतियाए, सहसम्मुड्याए, सहसम्मइए।
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