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________________ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) PRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR परिभ्रमण करता है, सोहं - वही आत्मा मैं हूं, आयावाई - आत्मवादी, लोयावाई - लोकवादी, कम्मावाई - कर्मवादी, किरियावाई - क्रियावादी। भावार्थ - कोई प्राणी अपनी सन्मति - सूक्ष्म बुद्धि एवं जातिस्मरण ज्ञान से अथवा तीर्थंकर आदि के उपदेश से अथवा दूसरों के - अन्य विशिष्ट श्रुतज्ञानी के निकट उपदेश सुन कर यह जान लेता है कि मैं पूर्व दिशा से आया हूं अथवा दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा, ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा या अन्य किसी दिशा अथवा विदिशा से आया हैं। इस प्रकार कितनेक जीवों को यह ज्ञात-ज्ञान हो जाता है कि मेरी आत्मा औपपातिक-नाना गतियों में भ्रमण करने वाली है जो इन दिशाओं से अथवा अनुदिशाओं से आकर संसार में परिभ्रमण करती है। जो इन सब दिशाओं और अनुदिशाओं में परिभ्रमण करती है वही आत्मा मैं हूं। वही पुरुष (जो उस गमनागमन करने वाली आत्मा को जान लेता है) आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में आत्म तत्त्व को जानने के तीन साधन बताये हैं - १. स्वमति से - मति यानी बुद्धि को सन्मति कहते हैं। पूर्वजन्म की स्मृति रूप जातिस्मरण ज्ञान तथा अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान होने पर। २. पर-उपदेश से - तीर्थंकर, केवली आदि के उपदेश से। ३. तीर्थंकरों के प्रवचनानुसार उपदेश करने वाले विशिष्ट ज्ञानी के निकट उपदेश आदि सुनकर। उपरोक्त कारणों में से किसी के भी द्वारा जीव यह जान लेता है कि पूर्व आदि दिशाओं में जो परिभ्रमण करती है वह आत्मा 'मैं ही हूँ। जो आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला है वह आत्मवादी है। आत्मा को मानने वाला लोक स्थिति को भी स्वीकार करता है क्योंकि आत्मा का परिभ्रमण लोक (संसार) में ही होता है इसलिये वह लोकवादी है। लोक को मानने वाला कर्म को भी मानेगा अतः वह कर्मवादी है। कर्म बंध का कारण क्रिया है। अतः वह कर्म बंध के कारणभूत क्रिया को जानने वाला होने से क्रियावादी भी है। अर्थात् आत्मा का सम्यक् ज्ञान हो जाने पर लोक का, कर्म का और क्रिया का भी ज्ञान हो जाता है अतः वह आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। आत्मवादी आदि चारों बोलों का संक्षिप्त एवं सारपूर्ण वर्णन पूर्वाचार्य रचित 'समकित छप्पनी' ग्रन्थ में ५-६ दोहों के द्वारा समझाया गया है। जिज्ञासुओं के लिए वह पठनीय है। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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