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एक
है तब वह जिन जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे उन्हें त्याग देवें। जीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके. एक अन्तर वस्त्र और एक उत्तर वस्त्र साथ में रखे अथवा उन वस्त्रों को कभी ओढे और कभी बगल में रखे अथवा एक वस्त्र को त्याग दे अथवा उसका भी परित्याग कर एकशाटक ही वस्त्र रखे अथवा रजोहरण और मुखवस्त्रिका के सिवाय उस वस्त्र का भी त्याग कर अचेलक - निर्वस्त्र हो जाए। इस प्रकार लाघवता का चिंतन करता हुआ वस्त्र का त्याग (वस्त्र विमोक्ष) करे। वस्त्र परित्याग से साधु को तप की प्राप्ति होती है यानी उस मुनि को सहज ही उपकरण ऊनोदरी और कायक्लेश तप हो जाता है।
तीर्थंकर भगवान् ने जिस प्रकार उपधि त्याग का प्रतिपादन किया है उसे उसी रूप में गहराई से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व या समभाव को सम्यक्तया जाने और उसका आचरण करे ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि साधु अपने शरीर को जितना कस सके, उतना कसे, जितना कम से कम वस्त्र से रह सकता है, रहने का अभ्यास करे। इसीलिये कहा है कि ग्रीष्म ऋतु आने पर साधु तीन वस्त्रों में से एक जीर्ण वस्त्र का त्याग कर दे, शेष दो वस्त्रों में से भी त्याग कर सके तो एक वस्त्र का त्याग कर मात्र एक वस्त्र में रहे और यदि इसका भी त्याग कर सके तो अचेलक - वस्त्र रहित हो कर रहे। इस प्रकार लाघवता को अपनाने से मुनि को तप लाभ तो होता ही है साथ ही वस्त्र संबंधी सभी चिंताओं से मुक्त हो जाने के कारण प्रतिलेखन आदि से बचे हुए समय का स्वाध्याय, ध्यान आदि में सदुपयोग हो जाता है । इसीलिये आत्मविकास की दृष्टि से आगमों में अचेलकत्व को प्रशस्त बताया है।
स्थानांग सूत्र स्थान ५ उद्देशक ३ में अचेलकत्व
अल्प वस्त्र रखने के ५ लाभ बताये
हैं। यथा
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आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध )
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१. उसकी प्रतिलेखना अल्प होती है।
२. उसका लाघव प्रशस्त होता है।
३. उसका वेश विश्वसनीय होता है।
४. उसका तप जिनेन्द्र द्वारा अनुज्ञात होता है।
५. उसे विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है।
इस प्रकार तीर्थंकर भगवान् द्वारा प्ररूपित सचेलक और अचेलक के स्वरूप को भलीभांति
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