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आठवां अध्ययन - चौथा उद्देशक - आपवादिक पंडित मरण २७५ 888888888888888888888888888888888888888888888888888 जान कर साधु दोनों ही अवस्था में समान भाव रखे और समभावों से परीषह सहते हुए कर्मों से अनावृत्त होने का प्रयत्न करता रहे।
आपवादिक पंडित मरण
(४२३) __जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ पुट्ठो खलु अहमंसि, णालमहमंसि सीय फासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे, तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए, से वि तत्थ विअंतिकारए इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं हिस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि।
॥ अटुं अज्झयणं चउत्थोद्देसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - अहं पुट्ठो अंसि - मैं शीतादि परीषहों से स्पर्शित (दुःखों से आक्रान्त) हो गया हूं, वसुमं - संयम रूप धन से धनवान् - चारित्रवान् साधु, सव्वसमण्णागय पण्णाणेणंसब तरफ से ज्ञान संपन्न होने से, विहं - वैहायस आदि मरण को, आइए - स्वीकार करे, कालपरियाए - काल पर्याय, विअंतिकारए - अंतक्रिया - कर्मों का अंत करने वाला, विमोहाययणं - मोह के दूर करने का स्थान, हियं - हितकारी, सुहं - सुखकारी, खमं - क्षमयुक्त - उचित (यथार्थ), णिस्सेसं - निःश्रेयस - मोक्षप्रदायी, आणुगामियं - आनुगामिकपरलोक में साथ चलने वाला।
भावार्थ - जिस साधु को यह प्रतीत हो कि मैं शीतादि परीषहों या स्त्री आदि के अनुकूल उपसर्गों से आक्रान्त हो गया हूँ और अब मैं इन परीषह-उपसर्गों को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ तब संयम धनी वह भिक्षु संपूर्ण ज्ञान से युक्त होने के कारण स्व विवेक से उस स्त्री आदि परीषह उपसर्गों का सेवन न करने के लिए दूर हट जाता है। उस तपस्वी भिक्षु के लिये यही श्रेष्ठ है कि वह ऐसी परिस्थितियों में वैहानस मरण (गले में फांसी लगाना, विषभक्षण करना आदि से मृत्यु) स्वीकार कर ले किंतु चारित्र दूषित न करे। उसके लिए ऐसा मरण भी काल पर्याय मरण है। वह साधु उस मृत्यु से अंतक्रिया करने वाला है। इस प्रकार यह मरण मोह रहित पुरुषों का आश्रय (आयतन), हितकारी, सुखकारी, यथार्थ, निःश्रेयस्कर (मोक्ष प्रदायी) और परलोक में साथ चलने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
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