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________________ २६३ आठवां अध्ययन - द्वितीय उद्देशक 8888888888888888888 8 (४०६) . भिक्खुं च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा फुसंति से हता! "हणह खणह छिंदह दहइ पयह आलुपह विलुपह सहसाकारेह विप्परामुसह" ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे तक्कियाणमणेलिसं अदुवा वइगुत्तिए गोयरस्स अणुपुव्वेण सम्म पडिलेहाए आयगुत्ते बुद्धेहिं एवं पवेइयं। ___ कठिन शब्दार्थ - पुट्ठा - 'पूछ कर, अपुट्ठा - बिना पूछे ही, गंथा - धन खर्च करके, हणह - मारो, खणह - पीडित करो, छिंदह - छेदन करो, दहह - जलाओ, पयह - पकाओ, आलंपह-लूट लो, विलुपह - सर्वस्व हर लो, सहसाकारह - शीघ्र घात कर डालो, विप्परामुसह- विविध प्रकार से पीड़ित करो, आइक्खे - कथन करे, तक्किया - ऊहापोहयोग्यता का विचार करके, अणेलिसं - अनुपम वचन कहे, गोयरस्स - आचार गोचरपिण्डविशुद्धि की, पडिलेहए - प्रतिलेखन करके, आयगुत्ते - आत्मगुप्त। ... भावार्थ - कोई गृहस्थ साधु से पूछकर या बिना पूछे ही बहुत धन खर्च करके आहारादि पदार्थ तैयार करके साधु को देना चाहे और साधु इस बात को जान कर उस अशनादि को लेने से इंकार कर देता है तो वह संपन्न गृहस्थ क्रोधावेश में आकर स्वयं उस भिक्षु को मारता है अथवा दूसरों से कहता है कि व्यर्थ ही मेरा धन व्यय कराने वाले इस साधु को डंडे आदि से पीटो, घायल कर दो, इसके हाथ पैर आदि अंगों को काटो, इसे जलाओ, इसके मांस आदि को पकाओ, इसके वस्त्र आदि लूट लो, इसका सर्वस्व हर लो, जल्दी ही इसे मार डालो अथवा इसे नाना प्रकार से पीडित करो। उन सब दुःख रूप स्पर्शों (परीषहों) को धीर मुनि समभाव पूर्वक सहन करे। अथवा वह आत्मगुप्त मुनि अपने आचार गोचर (पिण्ड विशुद्धि आदि आचार) का क्रमशः सम्यक् प्रतिलेखन (प्रेक्षा) करके, उस पुरुष की योग्यता का विचार करके यदि वह मध्यस्थ एवं प्रकृति भद्र लगे तो मुनियों के आचार गोचर का कथन करे, उसे साध्वाचार का स्वरूप समझाए। यदि वह व्यक्ति दुराग्रही, प्रतिकूल हो अथवा स्वयं में उसे समझाने की शक्ति न हो तो वचन गुप्त (मौन) रहे। यह बुद्धों (तत्त्वज्ञ पुरुषों - तीर्थंकरों) ने फरमाया है। विवेचन - कितनेक भद्र लोग साधु के आचार की अनभिज्ञता के कारण साधु के निमित्त अशनादि तैयार कराते है किंतु साधु को जब इस बात का पता लग जाता है तो वह उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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