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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 88888888888888888888888888888888888888888888 अशनादि को ग्रहण नहीं करता है तब वे लोग कुपित हो जाते हैं और साधु को नाना प्रकार से यातनाएं - कष्ट देते हैं। उस समय साधु को चाहिये कि उन कष्टों को धैर्य व समभाव से सहन करे किंतु अपने संयम में किसी प्रकार का दोष नहीं लगावे। यदि अवसर हो तो साधु उन गृहस्थों को समयानुसार उपदेश देवे अन्यथा मौन रह कर परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे। ऐसा मुनि शीघ्र ही संसार सागर से तिर जाता है। ऐसा श्री तीर्थंकर भगवंतों ने फरमाया है।
(४१०) से समणुण्णे असमणुण्णस्स असणं वा ४ वत्थं वा ४ णो पाएजा णो णिमंतेज्जा णो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्ति बेमि। . .
भावार्थ - वह समनोज्ञ (तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा का पालन करने वाला) साधु असमनोज्ञ यानी कुशील आदि को अशन पान आदि यावत् वस्त्र पात्र आदि अत्यंत आदरपूर्वक न दे, न उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे और न ही उनकी वैयावृत्य (सेवा) करें - ऐसा मैं कहता हूँ।..
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में असमनोज्ञ को समनोज्ञ साधु द्वारा आहारादि देने, उनके लिए निमंत्रित करने और उनकी सेवा करने का निषेध किया गया है।
(४११) धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुण्णे समणुण्णस्स असणं वा ४ वत्थं वा ४ पाएजा णिमंतेजा कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्ति बेमि।
॥ अहँ अज्झयणं बीओईसो समत्तो॥ भावार्थ - केवलज्ञानी महामाहन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यह धर्म फरमाया है, इसे तुम जानो - समझो। समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को अत्यंत आदरपूर्वक अशन यावत् वस्त्र पात्र आदि दे, उन्हें देने के लिये निमंत्रित करे, उनकी वैयावृत्य करे। - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - तीर्थंकर प्रभु ने फरमाया है कि शुद्ध संयम का पालन करने वाला साधु दूसरे अपने सांभोगिक साधु को आहारादि देवे, उनकी सेवा करे। सूत्र क्रं. ४१० में निषेध किया है तो सूत्र क्रं. ४११ में समनोज्ञ साधुओं को समनोज्ञ साधुओं द्वारा उपर्युक्त वस्तुएं देने का विधान किया गया है।
॥ इति आठवें अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त।
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