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________________ २६१ आठवां अध्ययन - द्वितीय उद्देशक RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRB लाकर आपको देता हूँ। अथवा आपके लिए मकान, उपाश्रय बनवा देता हूँ अथवा मकान आदि का जीर्णोद्धार करवा देता हूँ। अतः हे आयुष्मन् श्रमण! आप उस अशनादि का उपभोग करें और उस मकान (उपाश्रय) में रहें।' (४०७) आउसंतो समणा! भिक्खू तं गाहावई समणसं सवयसं पडियाइक्खे आउसंतो गाहावई! णो खलु ते वयणं आढामि, णो खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्ठाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ पाणाइं वा, ४ जाव समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं, अच्छिजं, अणिसटुं, अभिहडं आहट्ट चेएसि, आवसहं वा समुस्सिणासि, से विरओ आउसो! गाहावई! एयस्स अकरणयाए। ___ कठिन शब्दार्थ - समणसं - सुमनस् - भद्र हृदय वाले, सवयसं - सुवयस - भद्र वचन वाले, पडियाइक्खे - इस प्रकार कहे, आढामि - आदर देता हूं, परिजाणामि - स्वीकार करता हूं, अकरणयाए - अकरणीय होने से। भावार्थ - साधु उस भद्र मन वाले और भद्र वचन वाले गाथापति को इस प्रकार कहे कि हे आयुष्मन् गाथापति! मैं तुम्हारे इन वचनों का आदर नहीं करता हूं और इन वचनों को स्वीकार भी नहीं करता हूं कि जो तुम प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों का समारंभ करके मेरे लिए अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन बनाते हो अथवा मेरे उद्देश्य से खरीद कर, उधार लेकर, दूसरों से छीन कर, दूसरे की वस्तु को उसकी स्वीकृति के बिना लाकर अथवा मेरे सामने अन्यत्र से लाकर मुझे देना चाहते हो अथवा मकान-उपाश्रय बनवाना चाहते हो, जीर्णोद्धार कराना चाहते हो। हे आयुष्मन् गृहस्थ (गाथापति)! मैं इन सावध कार्यों से विरत हो चुका हूं, ये सब मेरे लिए अकरणीय होने से मुझे गाह्य नहीं है। .. विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए अनाचरणीय और अकल्पनीय का त्याग करने की विधि बताई है। साधु तीन करण तीन योग से सर्व सावध कार्यों से निवृत्त हो चुका है। अतः कोई भावुक गृहस्थ साधु के निमित्त से या साधु को उद्देश्य कर प्राण, भूत, जीव, सत्त्व आदि का आरंभ करके आहारादि बनाता है या उपाश्रय आदि का निर्माण करवाता है तो साधु उस भावुक हृदयी भक्त को प्रेम से, शांति से उस अकल्पनीय आहारादि न देने के लिए समझा दे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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