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आठवां अध्ययन - द्वितीय उद्देशक 888888888888 88888888888
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(४०५) तं परिण्णाय मेहावी तं वा दंडं अण्णं वा दंडं णो दंडभी, दंडं समारंभेजासि त्ति बेमि।
॥ अटुं अज्झयणं पढमोहेसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - दंडभी - उपमर्दन रूप दण्ड से डरने वाला।
भावार्थ - उसे जान कर मेधावी दण्डभीरु साधक जीव हिंसा रूप दण्ड का अथवा मृषावाद आदि अन्य दण्ड का समारम्भ न करे। ऐसा मैं कहता हूँ। . विवेचन - दण्ड शब्द के कई अर्थ मिलते हैं जैसे - १. लकड़ी आदि का डंडा २. निग्रह या सजा करना ३. अपराधी को अपराध के अनुसार शारीरिक या आर्थिक दण्ड देना ४. दमन करना ५. मन वचन और काया का अशुभ व्यापार ६. जीव हिंसा तथा प्राणियों का उपमर्दन आदि। .. प्रस्तुत सूत्र में 'दण्ड' शब्द का अर्थ प्राणियों को पीड़ा देने, उपमर्दन करने तथा मन, वचन
और काया का दुष्प्रयोग करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। साधक स्वयं दण्ड समारम्भ न करे, न करवाए और करने वाले का अनुमोदन भी न करे। इस प्रकार तीन करण तीन योग से हिंसादि का सर्वथा त्याग कर दे।
॥ इति आठवें अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त। अहमं अज्झयणं बीओडेसो
आठवें अध्ययन का द्धितीय उद्देशक आठवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक में असमनोज्ञ - अन्यतीर्थी साधु के साथ संभोग नहीं रखने का उपदेश दिया गया है। शुद्ध संयम का पालन करने के लिए कुशीलों की संगति का त्याग करना ही चाहिये परन्तु अकल्पनीय पदार्थों - आहार पानी, स्थान, वस्त्र आदि - का त्याग किये बिना यह संभव नहीं है अतः इस दूसरे उद्देशक में अकल्पनीय वस्तु त्याग का उपदेश दिया जाता है इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
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