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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) @@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@RRRRRRRRRRRRB दूसरी ३१ से ६० वर्ष तक और तीसरी उससे आगे की। ये तीन अवस्थाएं 'त्रियाम' हैं। स्थानांग सूत्र में इन्हें प्रथम, मध्यम और अंतिम नाम से कहा गया है।
- (४०१)
जे णिव्वया पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया।
कठिन शब्दार्थ - णिव्वुया - क्रोधादि के उपशम से शांत, अणियाणा - अनिदाननिदान रहित।
भावार्थ - जो क्रोधादि के उपशम से शांत हो गए हैं, वे पाप कर्मों के निदान से रहित . कहे गये हैं।
... (४०२) उडे अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सव्वावंति च णं पाडियक्कं जीवहिं . कम्मसमारंभेणं।
कठिन शब्दार्थ - पाडियक्कं - प्रत्येक।
भावार्थ - ऊंची-नीची एवं तिरछी सब दिशाओं में तथा सब विदिशाओं में सब प्रकार से एकेन्द्रिय आदि जीवों में से प्रत्येक को लेकर उपमर्दन रूप कर्म समारम्भ किया जाता है।
(४०३) तं परिणाय मेहावी णेव सयं एएहिं काएहिं दंडं समारंभेजा, णेवण्णे एएहिं काएहिं दंडं समारंभावेजा, णेवण्णे एएहिं काएहिं दंडं समारंभंतेवि समणुजाणेजा। ___भावार्थ - मेधावी-बुद्धिमान् साधक उस कर्म समारम्भ को जान कर स्वयं पृथ्वीकाय आदि दण्ड का समारम्भ न करे, न दूसरों के द्वारा समारम्भ करवाए और समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे।
(४०४) जे वण्णे एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति तेसिंपि वयं लजामो।
भावार्थ - जो दूसरे लोग इन पृथ्वीकाय आदि दण्ड का समारम्भ करते हैं उनके इस कार्य से हम लज्जित होते हैं।
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