SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठवां अध्ययन - प्रथम उद्देशक - तीन याम २५७ 密够够的密密密密密密密密密密密部部举密密部幹部部举參參參參參參參參參參參密密密部本部密密密密密 विवेचन - उस समय कुछ एकान्तवादी ऐसा मानते और कहते थे कि गांव, नगर आदि जनसमूह में रह कर ही धर्म साधना हो सकती है। जंगल में एकांत में रह कर साधु को परीषह सहन का अवसर ही कम आएगा और आएगा तो भी वह विचलित हो जाएगा। एकान्त में ही पाप पनपता है। इसके विपरीत कुछ एकान्त वादी यह कहते थे कि अरण्यवास में ही साधु धर्म का पालन अच्छी तरह से हो सकता है, जंगल में रह कर कंदमूल फलादि खा कर ही तपस्या की जा सकती है। बस्ती (जनसमूह) में रहने से मोह पैदा होता है। इन दोनों एकान्तवादों का प्रतिकार करते हुए आगमकार फरमाते हैं कि 'णेव गामे णेव रणे' धर्म न तो ग्राम में रहने से होता है न अरण्य में रहने से। धर्म का आधार ग्राम, नगर, अरण्य आदि नहीं है। धर्म का आधार तो आत्मा है। आत्मा के गुण - सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्र में धर्म है। जिससे जीवादि का ज्ञान हो, तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा हो और मोक्षमार्ग का यथार्थ आचरण हो। वास्तव में आत्मा का स्वभाव ही धर्म है अतः धर्म न गांव में होता है न जंगल में, वह तो आत्मा में ही होता है। आत्मदर्शी साधक का वास्तविक निवास निश्चल विशुद्ध आत्मा में होता है। तीन याम (४००) जामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आयरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया। कठिन शब्दार्थ - जामा - याम, संबुज्झमाणा - बोध को प्राप्त हुए, आरिया - आर्य, समुट्टिया - समुपस्थित। . भावार्थ - तीन याम कहे गये हैं उनमें बोध को प्राप्त हुए आर्यजन सम्यक् प्रकार से उत्थित होते हैं। विवेचन - 'तिण्णिजामा' शब्द के टीकाकार ने तीन अर्थ किये हैं - १. तीन याम - तीन महाव्रत-अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह। अदत्तादान और मैथुन को अपरिग्रह में अन्तर्भाव कर लिया है। कहीं अचौर्य महाव्रत को सत्य के साथ ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महाव्रत में समाविष्ट करते हैं। . २. तीन याम अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रयी जिनसे संसार भ्रमणादि का उपरम होता है। ३. तीन याम अर्थात् मुनि धर्म योग्य तीन अवस्थाएं - पहली आठ वर्ष से तीस वर्ष तक, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy