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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE
भावार्थ - इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों को मानते हुए, नाना प्रकार के आग्रहों को स्वीकार किये हुए मतवादी अपने अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं। उनके इस प्ररूपण में कोई भी हेतु नहीं है, ये वाद एकान्तिक होने से युक्तिसंगत नहीं है, ऐसा जानो। इस प्रकार उन एकान्त वादियों का धर्म सुआख्यात नहीं और सुप्रज्ञप्त भी नहीं है।
जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनेकांत रूप धर्म का कथन किया है उसी प्रकार से सम्यग्वाद का प्ररूपण करे। अथवा वाणी विषयक गुप्ति से रहे अर्थात् वाद विवाद के समय वचन गुप्ति से युक्त होकर रहे। ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में असमनोज्ञ साधुओं की आचार शिथिलता एकान्त एवं विरुद्ध श्रद्धा प्ररूपणा का कथन करते हुए स्पष्ट किया गया है कि एकान्तवादियों का धर्म युक्ति, हेतु, तर्क संगत नहीं होने के कारण सुआख्यात भी नहीं है और सुप्ररूपित भी नहीं है। इससे विपरीत सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर प्रभु द्वारा कथित अनेकांत धर्म ही स्वाख्यात एवं ग्राह्य है।
(३६८) . सव्वत्थ संमयं पावं, तमेव उवाइकम्म, एस महं विवेगे वियाहिए।
कठिन शब्दार्थ - सव्वत्थ - सर्वत्र, संमयं - सम्मत, सम्मति है, उवाइकम्म - अतिक्रमण (उल्लंघन) करके।
भावार्थ - अन्य मतवादियों के दर्शन में सर्वत्र पाप सम्मत है अर्थात् अन्यतीर्थी सर्वत्र पापानुष्ठान की सम्मति देते हैं उनके मत में पाप निषिद्ध नहीं है किन्तु भगवान् महावीर के धर्म में यह सम्मत नहीं है। उसी पाप का, पापाचरण का उल्लंघन करके रहना यह महान् विवेक कहा गया है। अथवा मैं पाप का अतिक्रमण करके स्थित हैं, यह मेरा विवेक है।
. धर्म का आधार
. (३६६) गामे वा अदुवा रण्णे, णेव गामे णेव रण्णे, धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मईमया। ____ कठिन शब्दार्थ - रण्णे - अरण्य - जंगल में, आयाणह - जानो, माहणेण - महामाहन भगवान् ने, मईमया - मतिमान्।
भावार्थ - धर्म ग्राम में होता है अथवा अरण्य (जंगल) में होता है? धर्म न तो ग्राम में है और न अरण्य में, उसी को धर्म जानो जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी महामाहन भगवान् ने फरमाया है।
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