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________________ आठवां अध्ययन - प्रथम उद्देशक २५५ 密密密密密密密密密密密整部举举參參參參參參參參部整參參參參參參整參參參參參華參參參參參參參參 अदुवा वायाउ विउज्जति तंजहा-अत्थि लोए णत्थि लोए धुवे लोए अधुवे लोए साइए लोए अणाइए लोए सपज्जवसिए लोए अपज्जवसिए लोए सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीत्ति वा, असिद्धीत्ति वा, णिरएत्ति वा अणिरएत्ति वा। कठिन शब्दार्थ - आयारगोयरे - आचार-गोचर (शास्त्र विहित आचरण), सुणिसंते - सुपरिचित, अदिण्णमाइयंति - अदत्त - बिना दिए हुए पर-द्रव्य का ग्रहण करते हैं, वायाउ विउज्जंति- वचनों का प्रयोग करते हैं, लोए - लोक, अधुवे - अध्रुव, साइए - सादि, अणाइए - अनादि, सपजवसिए - सपर्यवसित (सान्त) अपजवसिए - अपर्यवसित (अनन्त), सुकडेत्ति - सुकृत-अच्छा किया है, दुकडे त्ति - दुष्कृत है, कल्लाणेत्ति - कल्याण है, पावेत्ति - पाप, साहुत्ति - साधु (भला), असाहुत्ति - असाधु (बुरा)। भावार्थ - इस लोक में कई साधकों को आचार-गोचर का भलीभांति परिचय नहीं होता है। वे इस लोक में आरम्भार्थी - आरंभ करने वाले होते हैं। वे अन्यमतीय भिक्षुओं की तरह बोलने लग जाते हैं कि 'प्राणियों को मारो' इस प्रकार वे प्राणीवध स्वयं करते हैं, दूसरों से करवाते हैं और करने वालों का अनुमोदन करते हैं अथवा वे अदत्त - स्वामी द्वारा बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध प्रकार के वचन बोलते हैं जैसे कि लोक है, लोक नहीं है, लोक ध्रुव है, लोक अध्रुव है, लोक सादि है, लोक अनादि है। लोक सान्तसपर्यवसिंत है, लोक अपर्यवसित - अन्तरहित है, सुकृत है, दुष्कृत है, पुण्य है, पाप है, साधु (भला) है, असाधु (बुरा) है, सिद्धि है, असिद्धि - सिद्धि नहीं है, नरक है, नरक नहीं है। (३६७) .. जमिणं विप्पडिवण्णा “मामगं धम्म” पण्णवेमाणा, इत्थवि जाणह अकम्हा। एवं तेसिं णो सुअक्खाए धम्मे णो सुपण्णत्ते धम्मे भवइ, से जहेयं भगवया पवेइयं आसुपण्णेण जाणया पासया, अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स त्ति बेमि। कठिन शब्दार्थ - विप्पडिवण्णा - विप्रतिपन्न - विविध आग्रहों से युक्त, परस्पर विरुद्ध वाद को मानते हुए, पण्णवेमाणा - प्ररूपण करते हुए, अकम्हा - अकस्मात् - कुछ भी नहीं है, युक्ति संगत नहीं होने के कारण, सुअक्खाए - सुआख्यात, सुपण्णत्ते - सुप्रज्ञप्त, आसुपण्णेणं- आशुप्रज्ञ, वओ गोयरस्स - वाणी के विषय, गुत्ती - गुप्ति-गुप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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