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________________ २५४ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888888888888888888888 B88888888888888888888 “समणुण्ण" शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'समनोज्ञ' होता है जिसका अर्थ है - जो दर्शन (श्रद्धा) से और वेश (लिंग) से समान हो किन्तु भोजनादि व्यवहार से नहीं। इसके विपरीत जिसकी श्रद्धा, लिंग आदि सब भिन्न हैं, वह “असमणुण्ण' - असमनोज्ञ कहलाता है। असमनोज्ञ के लिए शास्त्रों में ‘अन्यसांभोगिक' तथा 'अन्यतीर्थिक' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। निह्नव आदि वेश से समनौज्ञ है परन्तु दृष्टि से असमनोज्ञ है।। ___ मुनि अपने साधर्मिक (समानधर्मा) समनोज्ञ को ही आहारादि ले - दे सकता है किन्तु एक आचार होने पर भी जो शिथिल आचार वाले पार्श्वस्थ, कुशील, अपच्छंद, अवसन्न आदि हों उन्हें मुनि आदर पूर्वक आहारादि नहीं ले - दे सकता है। निशीथ सूत्र अध्ययन २/४४ तथा अध्ययन १५। ७६-७७ में इसका स्पष्ट उल्लेख है। वस्तुतः यह निषेध भिन्न समनोज्ञ अथवा असमनोज्ञ के साथ राग द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, विरोध, वैर, भेदभाव आदि बढ़ाने के लिए नहीं किया गया है, यह तो सिर्फ अपनी आत्मा को ज्ञान, दर्शन, चारित्र की निष्ठा में शैथिल्य आने से बचाने के उद्देश्य से है। शास्त्र में विपरीत दृष्टि (मिथ्यादृष्टि) के साथ संस्तव, अति परिचय, प्रशंसा तथा प्रतिष्ठा - प्रदान को रत्नत्रय साधना दूषित करने का कारण बताया गया है अतः अन्यतीर्थियों के साथ साधु को किसी प्रकार का संबंध न रखना चाहिये। - तशाकथित असमनोज्ञ - अन्यतीर्थिक भिक्षुओं की ओर से किस-किस प्रकार से साधु को प्रलोभन, आदर भाव, विश्वास आदि से बहकाया, फुसलाया और फंसाया जाता है। यह प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। अपरिपक्व साधक इससे विचलित न हो जाय, अतः शास्त्रकार ने उनकी बात का आदर न करने, उपेक्षा करने का निर्देश दिया है। . . भगवान् महावीर स्वामी के ११ गणधरों के नौ गण थे, उन नौ गणों में भी आहार पानी साथ में करने का संभोग नहीं था, शेष ११ संभोग थे। ऐसी संभावना पूज्य गुरुदेव फरमाया करते थे। सुव्यवस्था की दृष्टि से अन्य सांभोगिक समनोज्ञ को पीठ फलक आदि धामना दूसरे आचारांग के सातवें अध्ययन में बताया है, आहारादि नहीं। जैसे उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन में केशीकुमार श्रमण के द्वारा भी गौतम स्वामी को पराल आदि का आसन धामना ही बताया है। (३६६) इहमेगेसिं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवइ, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा "हण पाणा" घायमाणा हणओ याविं समणुजाणमाणा अदुवा अदिण्णमाइयंति, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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