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________________ २२० आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) Reema RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR (३३७) भंजगा इव सण्णिवेसं णो चयंति, एवं पेगे अणेगरूवेहिं कुलेहिं जाया, रूवेहिं सत्ता, कलुणं थणंति णियाणओ ते ण लहंति मुक्खं। ___ कठिन शब्दार्थ - भंजगा इव - जैसे वृक्ष, सण्णिवेसं - सन्निवेश - स्थान को, चयंति - छोड़ते हैं, कुलेहिं - कुलों में, जाया - उत्पन्न हुए, कलुणं - करुण, थणंति - विलाप करते हैं, णियाणओ- कर्मों से। ___भावार्थ - जैसे वृक्ष अपने स्थान को नहीं छोड़ते हैं वैसे ही कोई (कई) पुरुष अनेक प्रकार के कुलों में जन्म लेते हैं, रूपादि विषयों में आसक्त होकर करुण रुदन करते हैं किंतु अपने कर्मों से मुक्ति यानी छुटकारा प्राप्त नहीं करते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में आत्मज्ञान से शून्य मनुष्यों की करुण दशा को समझने के लिये . शास्त्रकार ने दो दृष्टान्त दिये हैं जो इस प्रकार हैं - १. कछुए का दृष्टान्त - किसी स्थान में एक सरोवर था। वह लाख योजन का विस्तार वाला था। वह शैवाल और लताओं से ढंका हुआ था। दैवयोग से सिर्फ एक स्थान में एक इतना छोटा सा छिद्र था जिसमें कछुए की गर्दन बाहर निकल सके। उस तालाब का एक कछुआ अपने समूह से भ्रष्ट होकर अपने परिवार को ढूंढने के लिए अपनी गर्दन को ऊपर उठा कर घूम रहा था। दैवयोग से उसकी गर्दन उसी छिद्र में पहुंच गई तब उसने आकाश की शोभा को देखा। आकाश में निर्मल चांदनी छिटक रही थी जिससे ऐसा मालूम पड़ता था कि क्षीर सागर का निर्मल प्रवाह बह रहा है और उसमें तारागण विकसित कमल के समान दिखाई पड़ते थे। आकाश की ऐसी शोभा को देख कर उस कछुए ने सोचा कि - इस अपूर्व दृश्य को यदि मेरा परिवार भी देखे तो अच्छा हो। ऐसा सोच कर वह अपने परिवार को ढूंढने के लिए फिर तालाब में घुसा जब उसे उसका परिवार मिल गया तो उस छिद्र-बिल को ढूंढने के लिए निकला परंतु वह छिद्र उसको फिर नहीं मिला। आखिर उस छिद्र को ढूंढते ढूंढते वह मर गया। इसका दान्तिक यह है कि - यह संसार एक सरोवर है। जीव रूपी कछुआ है जो कर्म रूपी शैवाल से ढंका हुआ है। किसी समय मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल और सम्यक्त्व की प्राप्ति रूपी अवकाश को प्राप्त करके भी मोह के उदय से अपने परिवार के लिए विषय भोग उपार्जन में ही अपने जीवन को समाप्त करके फिर संसार में भ्रमण करने लगता है। उसको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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