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छठा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - आत्मज्ञान से शून्य मनुष्यों की दशा २१६ 邻密密密密密密密密密密密密密密密密密部密密密密部够带绝密部參參參參參密部华參參參參參參參书帮
कठिन शब्दार्थ - किट्टइ - कहता है, समुट्ठियाणं - समुत्थित - धर्माचरण के लिए सम्यक् प्रकार से उद्यत (उत्थित), णिक्खित्तदंडाणं - लिक्षिप्तदण्ड - हिंसा त्यागी, समाहियाणंतप संयम आदि में समाहित-प्रवृत्त, पण्णाणमंताणं - ज्ञानवान् - उत्तम ज्ञान संपन्न, अविसीयमाणे - संयम में क्लेश - अवसाद पाते हुए, अणत्तपण्णे - अनात्मप्रज्ञ - आत्म कल्याण की बुद्धि से रहित।
भावार्थ - वह इस लोक में उनके लिये मुक्ति मार्ग का कथन करता है जो धर्माचरण के लिये समुत्थित है, दण्ड रूप हिंसा का त्यागी है, तप और संयम में उद्यत है और सम्यम् ज्ञानवान् हैं। इस प्रकार तीर्थंकर आदि के उपदेश को सुनकर कोई महान् वीर पुरुष संयम में पराक्रम करते हैं। जो आत्मप्रज्ञा से शून्य (आत्म कल्याण की बुद्धि से रहित) हैं वे संयम में विषाद पाते हैं उन्हें (उनकी करुण दशा को) देखो।
विवेचन - तीर्थंकर भगवान्, सामान्य केवली अथवा दूसरे अतिशय ज्ञानी या श्रुतकेवली धर्मोपदेश देते हैं। यद्यपि ये सामान्यतः सभी प्राणियों के लिए धर्म का उपदेश करते हैं तथापि जो लोग धर्म के प्रति रुचि रखते हैं वे हलुकर्मी जीव ही उनका उपदेश सुन कर धर्माचरण करने के लिए तत्पर होते हैं किंतु जो लोग धर्माचरण करने में प्रमाद करते हैं उनकी बुद्धि आत्मकल्याण करने वाली नहीं है।
__ (३३६) . से बेमि-से जहावि कुम्मे हरए विणिविट्ठचित्ते पच्छण्णपलासे उम्मग्गं से णो लहइ।
कठिन शब्दार्थ - कुम्मे - कछुआ, हरए - हृद-सरोवर, विणिविट्ठचित्ते - चित्त को लगाया हुआ, पच्छण्णपलासे - शैवाल और कमल पत्तों से ढका हुआ, उम्मग्गं - ऊपर आने के मार्ग (विवर) को। - भावार्थ - मैं कहता हूं - जैसे शैवाल और कमल के पत्तों से ढंके हुए हृद-सरोवर (तालाब) में अपने चित्त को लगाया हुआ कछुआ उन्मुक्त आकाश को देखने के लिए कहीं छिद्र को नहीं पाता है।
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