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धूताक्खं णामं छहं अज्झयणं
धूतास्य नागक छळा अध्ययन पांचवें अध्ययन में लोक में सारभूत संयम और मोक्ष का वर्णन किया गया है। वह मोक्ष निःसंग हुए बिना और कर्मों का क्षय किये बिना नहीं होता है। इसलिये इन विषयों का प्रतिपादन करने के लिये छठे अध्ययन का प्रारम्भ किया जाता है। इस अध्ययन में कर्मों के विधूनन का यानी क्षय करने का उपदेश है। इसलिये इसका नाम 'धूत' अध्ययन है। धूत नामक इस छठे अध्ययन के प्रथम उद्देशक का प्रथम सूत्र इस प्रकार है - पठमो उद्देसो-प्रथम उद्देशक
(३३४) ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से णरे, जस्सिमाओ जाइओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, आघाइ से णाणमणेलिसं।
कठिन शब्दार्थ - ओबुज्झमाणे - अवबुध्यमानः - अवबुद्ध - ज्ञाता, आघाइ - आख्यान - धर्म का कथन करता है, जाइओ - जातियाँ, सुपडिलेहियाओ - सुप्रतिलेखित - अच्छी तरह ज्ञात, अणेलिसं - अनीदृश - अनुपम।
. भावार्थ - इस मनुष्य लोक में सद्बोध को प्राप्त हुआ (स्वर्ग, अपर्णा तथा उनके कारणों को एवं संसार और उसके कारणों को जानने वाला-जाता) पुरुष मनुष्यों के प्रति धर्म का कथन करता है। जिसे ये एकेन्द्रिय आदि जातियाँ सब प्रकार से भलीभांति ज्ञात होता हैं वही अनुपम (विशिष्ट) ज्ञान का एवं धर्म का कथन करता है। आत्मज्ञान से शून्य मनुष्यों की दशा
(३३५) से किदृइ तेसिं समुट्ठियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं, एवं पेगे महावीरा विप्परक्कमंति, पासह एगे अविसीयमाणे अणत्तपण्णे।
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